Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
सचरित्रम्
कोई कार्य करता है, वही कर्मयोगी बन सकता है। अपने कर्तव्य पालन में एकाग्र होकर निरत होना तथा पूर्ण रूप से अपने 'स्व' को उसमें तिरोहित कर देना कर्मयोग का लक्षण है। इसके साथ सच्चाई यह है कि कर्मयोगी को अपने सत्कार्य में ईश्वरत्व के दर्शन होते हैं, क्योंकि प्रत्येक दुःखतप्त प्राणी में ईश्वर का निवास होता है।
कर्म योग की दिशा में अग्रगामी होने की आकांक्षा रखने वाले युवानों के लिए कुछ निर्देश1. अपना कर्तव्य पालन सदा उसी उत्साह और उत्सुकता से करो जैसा अपना निज का हित साधन
में करते हो। घर और बाहर सर्वत्र कर्त्तव्यनिष्ठा एक-सी रहे। 2. किसी भी प्रश्न अथवा समस्या का जल्दबाजी मे निपटारा मत करो। हर बार गहराई से सोचो। 3. हितकारी कार्य इस निष्ठा से करो कि अन्य व्यक्ति सदा तुम्हें चाहे और तुम्हारी सराहना करें। तुम
उनके लिए आदर्श बनो। 4. तुम्हारा सत्कार्य सदा निःस्वार्थ हो तथा अपने लिए तुम किसी से कुछ भी न चाहो। 5. अपने कार्यों में कठिन परिश्रम तथा समर्पण का ऐसा प्रभावकारी परिचय मिले कि आप अपना
मस्तक गौरव से ऊपर उठा सको। 6. तुम्हारा मनमानस सदा स्वतंत्र रहे और तुम ठुकराए हुए, निराशा से भरे तथा उत्साहहीन बने लोगों
की सेवा के लिए सदैव तत्पर रहो। 7. सदा कर्त्तव्य को पहले रखो ताकि चरित्रशीलता के श्रेष्ठ गुणों-धैर्य, सहिष्णुता, सकारात्मकता
आदि से अपने जीवन को विभूषित बना सको। अष्टावक्र संहिता (1-10-1) में कहा है-'जो कर्तव्य आपने निभाए और जो नहीं निभाए-उन दोनों पर चिन्तन करो कि कर्तव्य पालन क्यों बंद किया गया और किन कारणों से। उनको जान कर कामनामुक्त बन जाओ और रागद्वेष के भेदभाव से ऊपर उठ कर सर्वस्व त्याग के लिए संकल्पबद्ध हो जाओ।'
युवानों को कर्मनिष्ठ बनने में यह विचार परम प्रेरक सिद्ध होगा कि वर्तमान में यत्र-तत्र सर्वत्र जो दुःख कष्ट और सन्ताप दिखाई दे रहा है, वह अधिकांशतः मानव कृत है तथा इसको सुव्यवस्थित रूप से समता मय बनाने हेतु समष्टि के महत्त्व को अधिक महत्त्वपूर्ण मानना चाहिए। इस संबंध में श्रेष्ठ चिन्तक उपाध्याय अमर मुनि के विचार युवानों का सही मार्गदर्शन करने वाले हैं-'मनुष्य का जीवन एक क्षुद्र कुआं या तलैया नहीं है, वह एक महासागर की तरह विशाल और व्यापक है। मनुष्य अपने समाज में अकेला नहीं है, परिवार उसके साथ है समाज से उसका संबंध है, देश का वह नागरिक है और इस पूरी मानव-सृष्टि का वह एक सदस्य है। उसकी हलचल का, क्रिया-प्रतिक्रिया का असर सिर्फ उसके जीवन में ही नहीं, पूरी मानव जाति और समूचे प्राणी जगत पर होता है। इसलिए उसका जीवन व्यष्टिगत नहीं, बल्कि समष्टिगत है।......जितने भी शास्त्र हैं-चाहे वे महावीर स्वामी के कहे हुए आगम हैं या बुद्ध के कहे हुए पिटक हैं या वेद, उपनिषद्, कुरान या बाईबिल हैआखिर वे किसके लिए हैं? क्या पशु-पक्षियों को उपदेश सुनाने के लिए हैं? क्या कीड़े-मकोड़ों को सद्बोध देने के लिए हैं? नरक के जीवों के लिए भी तो वे नहीं हैं, वे बेचारे रात-दिन यातनाओं से तड़प रहे हैं, हाहाकार कर रहे हैं और स्वर्ग के देवों के लिए भी तो उनका क्या उपयोग है? कहां है उन देवताओं को फुर्सत और फुर्सत भी है तो उपदेश सुन कर ग्रहण करने की योग्यता कहां है उनमें?
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