Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
जो जीवन का अर्थ समझ जाते हैं तथा अपने जीवन को विश्वहित पर न्यौछावर कर देने की क्षमता का विकास कर लेते हैं अर्थात् चरित्रशीलता के उस स्तर तक पहुंच जाते हैं, जहां पर दुःखतप्त प्राणियों के दुःख दूर करने की एकमात्र कामना शेष रह जाती है, वहां कर्तव्यनिष्ठा का अद्भुत जागरण होता है। महाभारत (शान्ति पर्व) का प्रसंग है-सूर्यदेव की उपासना से धर्मराज युधिष्ठिर को अक्षय पात्र की प्राप्ति हुई। उस पात्र की विशेषता थी कि मांगने पर सब कुछ मिल जाता था। उसे पाकर धर्मराज खूब दान देने लगे और उस दान के साथ उनका अभिमान भी पुष्ट होने लगा। सोलह हजार साठ ब्राह्मणों को प्रतिदिन दान देना इतना फलदायक हुआ कि उनकी जयकार से उनका अहं भी आसमान छूने लगा। कर्मयोगी कृष्ण ने बढ़ते हुए इस अभिमान को देखा तो धर्मराज के उस गर्व को उन्होंने तोड़ने का निश्चय कर लिया। वे धर्मराज को साथ लेकर पाताल लोक में राजा बलि के पास पहुंचे। कृष्ण ने बलि को धर्मराज का परिचय कराया और कहा-'तुम दोनों दानी हो इस कारण परस्पर एक दूसरे को जानना चाहिए।' बलि ने नम्रता से कहा-'क्यों लज्जित करते हैं, प्रभो! मैं कहां का दानी हो गया हूँ? ब्राह्मण को तीन पग भूमि तो दे न सका और इस बात से मैं अपने को तुच्छ मानने लगा हूँ।' बलि की इस बात से धर्मराज को धक्का लगा कि अपना सर्वस्व समर्पित करने वाला यह बलि स्वयं को दानी भी नहीं मानता। तब कृष्ण ने बलि को बताया-'बलि! इनके पास एक अक्षय पात्र है, उसके प्रभाव से ये प्रतिदिन सोलह हजार साठ ब्राह्मणों को भोजन करवाते हैं।' बलि चौंका, उसने गंभीर होकर पछा-'प्रभो! यदि आप इसे दान कहते हैं तो पाप किसे कहेंगे?' अब धर्मराज को चौंकाने की बारी थी। कृष्ण ने ही बलि से प्रश्न किया-'क्या तुम दान को पाप मानते हो?' वह बोला'हाँ प्रभो ! मैं तो इसे पाप ही समझता हूँ। इस तरह तो धर्मराज सोलह हजार साठ ब्राह्मणों को अकर्मण्य निकम्मा बना रहे हैं। वे ब्राह्मण धर्मराज की जयकार करके अपने कर्तव्य की इति-श्री मान लेंगे और हमेशा के लिए अपने उचित कर्त्तव्य से विमुख हो जाएंगे।' कृष्ण ने बलि से फिर प्रश्न किया'दैत्यराज! तो तुम दान को उचित नहीं मानते।' बलि ने उत्तर दिया-'मैं दान को उचित मानता हूँ, लेकिन उसी दान को जो लोगों में कर्तव्यनिष्ठा जगावे। वह दान ही सर्वश्रेष्ठ है।'
आशय यह है कि जो कुछ भी सत्कार्य किया जाए उसका उद्देश्य यही हो जिससे स्वयं या अन्य का चरित्र निर्माण हो। उसके असर से किसी भी चारित्रिक गुण का विकास होना चाहिए। मानव जीवन की सार्थकता इसी में है कि अधिक से अधिक मानवों के मन में सार्थकता की जिज्ञासा जगाई जाए और उन्हें चरित्रशील बनने की प्रेरणा दी जाए। अभियान के सहभागियों को ऐसे प्रयत्नों में जुट जाना चाहिए और कोशिश करते रहना चाहिए। जो कोशिश में लग जाते हैं, उनकी हार कभी नहीं होती है। इस संबंध में एक कवि ने अपने काव्य से कितनी सटीक प्रेरणा दी है
लहों से डर कर, नौका पार नहीं होती कोशिश करने वालों की
हार नहीं होती। नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है
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