Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh

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Page 654
________________ सुचरित्रम् जिन्दगी का अर्थ उठना जिन्दगी का अर्थ चलना जिन्दगी सोना नहीं है जिन्दगी है कर्म की पावन त्रिवेणी जिन्दगी इस त्रिवेणी के तटों पर बैठकर रोना नहीं है। हार कर भी बढ़ रहा है, जय के लिए जो जो स्वयं हारा मगर हिम्मत नहीं हारी जिन्दगी जीता हुआ उसको कहूँगा राह में जिन्दगी जिसने गुजारी। वह पथ क्या, पथिक-कुशलता क्याजिस पथ पर बिस्वरे शूल न हों? नाविक की धैर्य परीक्षा क्या यदि धाराएं प्रतिकूल न हों? जब चलना सीखा जाता है, तब समझ में आती है जीवन की गति : मनुष्य की चाल देखी जाती है, उसका चलन देखा जाता है और उस पर से मनुष्य की कीमत आंकी जाती है। यों चलने का बाहरी और भीतरी मतलब बड़ा गहरा माना गया है। बाहर की चाल से ही भीतर का चलन परखा जाता है और जिसका चाल चलन प्रामाणिक नहीं माना जाता है-उसका चरित्र निर्माण जरूरी है। चरित्र निर्माण अभियान का यही प्रमुख उद्देश्य है। चलना कैसे सीखता है मनुष्य-इसकी जानकारी बड़ी दिलचस्पी है। गर्भ में रहने वाला शिशु सबसे पहले पांव चलाना सिखता है और माँ के पेट को अपना कर्मस्थल बनाता है। इस करतब को वह भलता नहीं और गर्भाशय से बाहर निकल कर भी शिश का जो हलन चलन होता है उसमें पांव चलाना ही खास होता है। पांव चलाते-चलाते ही वह करवट बदलता है और उल्टा सरकने लगता है। चाल के काम को वह कहीं भी भूलता नहीं। कुछ बड़ा होने के बाद जब वह अपने पिता या माता को अपनी अंगुली थमा कर सीधा चलने की कोशिश करता है तो चलने की क्षमता का विकास होने लगता है। तब अन्तिम अभ्यास के रूप में वह अपने बल पर बिना सहारे के चलने लगता है। शिश से किशोर की चाल में अधिक स्थिरता आती है तो युवक की चाल उसकी शक्ति की प्रतीक बन जाती है। यह है मनुष्य की बाहरी चाल की कहानी। जब बाहर की चाल पुख्ता बनती है तब गति की स्थिरता और उसका वेग समझ में आता है। इस समझ में भीतर की ताकत कभी जडती रहती है और 540

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