Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh

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Page 658
________________ सुचरित्रम् आत्म-विकास उस यज्ञ का फल। जब उनसे पूछा गया कि यज्ञ के लिए आपकी अग्नि कहाँ है, अग्नि के लिए वेदी कहाँ है, वेदी के लिए उपकरण कहाँ है और उपकरणों का शान्ति पाठ क्या है? उन का उत्तर था-तपस्या मेरी अग्नि है, आत्म-जागरण मेरी वेदी है, मेरा शरीर, मेरे अंग, मेरी इन्द्रियां और मन, वचन, कर्म मेरे उपकरण हैं, मेरे कर्म मेरी आहूति है तथा मेरी पूर्ण शान्ति की प्रतिज्ञा मेरा शान्ति पाठ है। ऐसा है मेरा यज्ञ। यह यज्ञ क्या है? चलने की उत्कृष्टता, गति की श्रेष्ठता एवं प्रगति की उपादेयता। वस्तुतः यह सर्वोच्च सत्य की खोज में अहिंसक जीवनशैली का स्वरूप है। धम्मपद (बौद्ध ग्रंथ) में कहा है'जिनका मन-मानस पूर्णतः प्रकाशित को चुका है और जो भ्रष्टता, तृष्णा और वैर से मुक्त हो चुका है, वह इसी संसार में निर्वाण को प्राप्त कर लेता है।' ईसाई धर्मग्रंथ मैथ्यू' में कहा गया है-तुम को भी उतना ही पूर्ण बनना चाहिए जितना कि तुम्हारा परम पिता परमात्मा है (5-48) चलना, चलते रहना . और अकेले भी चलना इसी पूर्णता का साध्य प्राप्त करने के लिए है। चलते रहना है कर्म करते रहना और कर्म करते रहना जीवन का धर्म है : ___ चलना और चलते रहना, जीवन की जीवन्तता का प्रमाण होता है। चलते रहने का अर्थ है कर्म करते रहना। मनुष्य निष्कर्म रह कर जीवित रह सकता है किन्तु वह जीवन्त नहीं हो सकता। यही कारण है कि कर्म करते रहने को जीवन का धर्म कहा गया है और जो धर्म है, वही कर्तव्य है तथा वही चरित्र है। जीवन है तो कुछ न कुछ धर्म भी है, किन्तु कुछ न कुछ या कोई भी कर्म जीवन के लिए कल्याणकारी नहीं होता है। जीवन की वास्तविक कला यह होती है कि कर्म करके भी अकर्म रहा जाए, कर्म करते हुए भी कर्म की कामना से अलिप्त रहें और कर्म को साध्य का साधन मानें। कर्म जीवन का मार्ग होता है, जहां बाहर में कर्म करते हुए भी भीतर में अकर्म रहा जा सकता है। गीता में कहा गया है कि कोई भी मनुष्य निष्कर्म नहीं रह सकता है-कर्म तो जीवन के क्षण-क्षण में होता रहता है। कर्म का यहां अर्थ किया जा रहा है कार्य से, क्रिया से। किन्तु कर्म का अन्य अर्थ है कि । मनुष्य जो भी कार्य करता है उसकी शुभाशुभता के अनुसार कर्म वर्गणा के पुद्गल उसकी आत्मा के साथ संयुक्त होते हैं, जो अपना फलाफल देकर ही छूटते हैं। इस कर्म का संबंध भी चलते रहने से ही है यानी कि जैसा मनुष्य का चाल-चलन ढल जाता है उसके अनुसार वह कार्य करता है अथवा मन, वचन एवं काया का प्रयोग करता है और तदनुसार कर्म का बंधन होता है। किन्तु इन कर्मों के बंधन से भी अलिप्तता साधी जा सकती है। कर्म में लिप्त होने का अर्थ है ममत्व और आसक्ति। यदि किसी भी कार्य के साथ मोह अर्थात् राग व द्वेष के भाव न जुड़ें तो वे कार्य बंधन रूप नहीं बनते। इससे आशय यह निकलता है कि मोह रहित या निष्काम होकर कर्म किया जाए तो उससे अलिप्तता आ जाती है। यदि चलने और चलते रहने का क्रम भी ममत्व रहित बना लिया जाए तो उसका स्वरूप निरपेक्ष बन जाता है तथा निरपेक्ष कर्म चरित्र विकास का साधक हो जाता है। कर्म के साथ जहां भी मोह का स्पर्श होता है, वही बंधन होता है। बुद्ध ने कहा है-न तो ये चक्षु रूपों का बंधन है और न रूप ही चक्षु के बंधन हैं, किन्तु जो वहां दोनों के प्रत्यय (निमित्त) से छन्द राग अर्थात् द्वेष बुद्धि जागृत होती है, वही बंधन है (न चक्खु रूपानं संयोजनं, न रूपा चक्खुस्म संयोजनं, यं च तत्थ 544

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