Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
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विरक्त होना जीवन को वास्तव में महापुरुषों के आदर्शों पर चलना ही कहा जाएगा।
5. अपनी मूल परम्पराओं को जानो और परखो : मूल परम्पराओं का दीर्घ समय से चला आ रहा प्रचलन दिखाता है कि प्रारंभ में उनकी गुणवत्ता अपूर्व रही होगी। कालान्तर में ही उनमें विकृतियों ने प्रवेश पा लिया होगा अतः मूल परम्पराओं को भूलें नहीं, उन्हें जानें और परखें इस दृष्टि से कि उनके विकृत अंशों को अलग कर दिया जाए। ये परम्पराएं कर्म शोधन एवं सत्संस्कारों की परम्पराएं रही हैं और इनसे सदा सद्गुणों का विकास होता रहा है। इनमें जोड़ने वाली कड़ियां ही लगी हुई थी जिन्हें निहित स्वार्थियों ने विभाजक दीवारों का रूप दे दिया। दीवारें तोड़नी हैं और कड़ियों को फिर से नई बनानी है ।
6. जिज्ञासाओं के संदर्भ में दर्शन को देखो : दर्शन का अर्थ होता है देखना। देखना समीप का होता है, दूर का होता है और अति दूर का भी, सो इसी शक्ति-भेद से दृष्टि एवं दार्शनिकता के रूप ढले । देखने का सीधा परिणाम ज्ञात नहीं होता क्योंकि दर्शन धुंधला भी हो सकता है सो दर्शन से पैदा होती है जिज्ञासा तथा जिज्ञासा समाधान पाकर ज्ञान को जन्म देती है। सत्य शोधन ज्ञान का उच्चस्थ फल है। आशय यह है कि अपनी दृष्टि, जिज्ञासा एवं सत्य शोधक वृत्ति को जीवन्त रखें ।
7. कट्टरता से दूर मानव धर्म को मानो : जिस धर्म के दरवाजे प्रत्येक मानव के लिए खुले हों और जहां सबका सप्रेम एवं ससम्मान प्रवेश संभव हो वही होता है मानव धर्म । मानव धर्म में कट्टरता कदापि नहीं होती। वहां तो सदा उदारता, सहिष्णुता एवं सहयोगिता की प्रेम धाराएं बहती रहती हैं। कट्टरता वहीं फैलती है जहां यह समझ बन जाती है कि मेरा ही धर्म सच्चा और अच्छा है - बाकी सब झूठे और खराब हैं। वह असल में धर्म नहीं रहता, मात्र सम्प्रदाय रह जाती है। अतः साम्प्रदायिकता के स्थान पर सदा ही मनुष्य जाति की एकता का समर्थन करो ।
8. धर्म को विज्ञान की पांत में बिठाओ : धर्म का संबंध हृदय से अधिक और विज्ञान का संबंध मस्तिष्क से अधिक होता है किन्तु शरीर को हृदय और मस्तिष्क दोनों की आवश्यकता होती है। धर्म भावना में ही न बह जाय और अंध श्रद्धा का मार्ग न पकड़ ले - इसके लिए वैज्ञानिक वैचारिकता चाहिए और विज्ञान सिर्फ भौतिकता में भटक कर मानवता विरोधी बन रहा है उसके लिए धर्म का नियंत्रण चाहिए। इसका एक ही उपाय है कि दोनों को विलग न करके एक दूसरे का पूरक बनाओ।
9. मानव चरित्र को मानवीयता में ढालो : मानव जीवन में चरित्र का अमित महत्त्व है और यदि उसके चरित्र का सम्यक् रूप से निर्माण एवं विकास होता है तो उससे मानवीय मूल्यों में निखार आता है। ऐसे चरित्र के आधार पर ही मानव जाति की एकता एवं विश्व बन्धुत्व में निष्ठा जागती है। चरित्र निर्माण अभियान की दृष्टि से तो मानव जीवन का और समस्त विश्व की व्यवस्था का सर्वाधिक उपादेय कोई तत्त्व है तो वह है चरित्र बल । चरित्र सम्पन्न बन कर मानव महामानव बन जाता है।
10. विश्व की वर्तमान विकृतियों को पहचानो : वर्तमान विश्व में विकृतियों, विषमताओं एवं विसंगतियों की जो विडम्बना छाई हुई है उससे निस्तार तभी पाया जा सकेगा जब यह अध्ययन