Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh

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Page 641
________________ चरित्रबल से ही घूमेगा शुभंकर परिवर्तन का चक्र एक भी आंख में आंसू न रहे। ___19. समता को आरंभ और अन्त की कड़ी बनाओ : समता को ही धर्म कहा गया है जो समभाव, साम्ययोग, समानता आदि से लक्षित है। चरित्र निर्माण अभियान में समता के साथ कर्मठता का आरंभ हो तो अन्ततः समता स्थापना के साथ उसका समापन भी। समता मानव मन की मूल भावना होती है और समता स्थापना के लिए सर्व सहयोग प्राप्त किया जा सकता है। जन समुदाय में नव चेतना समतापूर्ण व्यवहार से ही लाई जा सकती है। चरित्र निर्माण की प्रक्रिया में आरंभ से अन्त तक समता का संचार बना रहना चाहिए तथा बीच में जो भी समस्याएं पैदा हो, उनके समाधान भी समभाव एवं समतुलन के साथ खोजे जाने चाहिए। ज्यों-ज्यों समतामय आचरण विकसित एवं प्रसारित होगा, त्यों-त्यों सहयोगात्मक वृत्ति एवं प्रवृत्ति घनिष्ठ होती जाएगी अर्थात् एक सबके लिए जो सब एक के लिए बनते जाएंगे। समता और संयुक्तता से चरित्र विकास सबका उद्देश्य बन जाएगा। 20. व्यष्टि-समष्टि के संबंधों को नवीनता दो : वैज्ञानिक प्रगति, अन्तर्राष्ट्रीय निकटता, सामाजिक सम्पर्कों की गहनता आदि अनेक कारणों से समष्टि की शक्ति और महत्ता बढ़ी है तथा व्यष्टि के लिए समष्टि की सघनता एक अनिवार्य अंग बन गई है। व्यक्ति और समाज के बीच परस्परता की गहराई भी बढ़ी है। इसलिए व्यक्ति और समाज के प्रचलित संबंधों की आज समीक्षा एवं संबंधों की नवीनता विचारणीय है। इससे समूहों का बिखराव मिटेगा तथा एकीकरण की नई कोशिशें शुरू होगी। एक दूसरे का अशुभ नहीं, शुभ करने की वृत्ति प्रबल बनेगी। तब सहकार के विकास से एकाकार का वातावरण सजित होगा। जहाँ व्यष्टि एवं समष्टि के बीच एकाकार की रूपरेखा बनने लगती है तो वहां चरित्र निर्माण का क्षेत्र विश्व तक बढ़ा लेने में विशेष कठिनाइयाँ मौजूद नहीं रहेगी। ... 21. चरित्र निर्माण के साथ नई व्यवस्था की रूपरेखा बनाओ : चरित्र निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ होने से जन-जागरण होता है और जन-जागरण के बढ़ते रहने से चरित्र निर्माण की प्रक्रिया बलवती बनेगी। ऐसे में नई व्यवस्था की रूपरेखा अवश्य बनाई जानी चाहिए जिसकी चरित्रहीन व्यवस्था के स्थान पर स्थापना की जा सके। इसके मोटे मुद्दे हो सकते हैं-(अ) साम्प्रदायिकता टूटे, मानव धर्म फैले, (ब) समाज भोगवाद से हटे, समता के साथ जुड़े, (स) शासन-प्रशासन यथार्थ रीति से लोकतांत्रिक बने, (द) आर्थिक व्यवस्था संविभाग और मर्यादाओं के अनुसार चले, (य) राजनीति का शुद्धिकरण हो तथा उसका महत्त्व बहुत नीचे के बिन्दु तक घटाया जाए-जनता की सीधी भागीदारी कायम हो, (र) निहित स्वार्थियों के मुखौटे उघाड़े जाए और उनकी प्रवृत्तियों को शुभता की ओर मोड़ी जाए, (ल) उद्योग, व्यवसाय व व्यापार में पूर्णतः नैतिकता बरतने की बाध्यता हो, (व) नागरिक स्वतंत्र बने पर स्वच्छंद नहीं, अधिकारों का प्रयोग करें पर कर्तव्यों का पालन भी और ऐसे ही कई मुद्दे हो सकते हैं जिनको लेकर नई व्यवस्था की रूपरेखा बनाई जा सकती है और उसके अनुसार चरित्र विकास के प्रयास किए जा सकते हैं। 22. धर्म और नीति के मैल को धोओ : मूल स्वभाव के रूप में धर्म साध्य है तो नीति उसकी साधिका। जब नीति बिगड़ती है तो उसका मैल धर्म पर चढ़ता ही है। धर्म पर मैल जमने का मतलब 529

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