Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
View full book text
________________
सुचरित्रम्
524
'जैन' शब्द 'जन' व 'जिन' शब्द से बना है। जिन्होंने राग-द्वेष को जीत लिया वे 'जिन' कहलाते हैं और जो 'जन' राग-द्वेष को जीतने की प्रक्रिया अपनाते हैं वे 'जैन' हैं। इस पारिभाषिक शब्दावली के अन्तर्गत जैन कोई जाति नहीं है, वरन् एक विशुद्ध आत्मसाधनापरक दृष्टिकोण है। भगवान् महावीर से पूछा गया कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र कौन? उन्होंने कहा- कर्म से ही व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, और शूद्र होता है (कम्मुणा बंभणो होई, कम्मुणा होई खत्तिओः वइसो कम्मुणा होई, सुद्दो हवाई कम्पुणा ) । महावीर का दृष्टिकोण व्यापक एवं उदार रहा है, वे जाति से किसी से कुछ नहीं कहते। ये जातीयता, प्रान्तीयता, साम्प्रदायिकता आदि व्यक्ति को संकीर्ण बनाती है, जबकि गुण व कर्म के आधार पर व्यक्ति विस्तीर्ण बनता है । यही स्वस्थ एवं स्वच्छ दृष्टिकोण आज बने तो जैनत्व व हिन्दुत्व की समस्या नहीं रह सकती । उपासना पद्धति की दृष्टि से भले 'जैनों को अलग माना जा सकता है । परन्तु सामाजिक दृष्टि से जैन वर्ग हिन्दुत्व से भिन्न नहीं है। वे हिन्दुत्व के अटूट अंग हैं और अल्पसंख्यक - बहुसंख्यक के मुद्दे पर उन्हें हिन्दुओं से अलग रख कर हिन्दू समाज को कमजोर नहीं करना चाहिए। कुछ कटुता तथा कट्टरता से भरे हिन्दू लोग भी अपने अहं और आग्रह के कारण वैचारिक संकीर्णता के शिकार होते जा रहे हैं, जिसके कई कारण हो सकते हैं, पर यथार्थ में देखा जाए तो आधुनिक भारतीय संस्कृति के निर्माण में जैन, बौद्ध, सिख, मुसलमान, पारसी, ईसाई आदि सभी धर्मों का योग रहता है, इसलिए हिन्दू धर्म का अर्थ अगर हिन्दुस्तान में पलने वाला अथवा चलने वाला धर्म किया जाए तो ज्यादा श्रेष्ठता व आत्मीयता मिलेगी। मूलतः हिन्दू शब्द सिंधु का अपभ्रंश है, सिंधु नदी के तट पर बसने वाले ही है, सिंधु नदी के एक तट पर बसने वाले ही आगे चल कर हिन्दू कहलाने लगे और वे ही हिन्दू धर्म से अभिसंज्ञित हो गए। यह नहीं कहा जा सकता है कि जिन धर्मों का उद्गम स्थान भारत भूमि नहीं, वे भारतीय धर्म नहीं है। बौद्ध धर्म उद्गम की दृष्टि से विशुद्ध भारतीय धर्म है, पर उसने विकास पाया चीन और जापान में । अतः वह चीनी धर्म या जापानी धर्म कहलाने लग गया। वैसे ही उद्गम और विकास इन दोनों दृष्टियों से देखते हैं तो हिन्दुस्तान में प्रचार-प्रसार पाने वाले सारे धर्म हिन्दुस्तानी धर्म के अन्तर्गत आ जाते हैं। फिर केवल एक धर्म को ही हिन्दू धर्म कैसे कहा जा सकता है? यह एक विचारणीय बात है ।
वस्तुतः धर्म नहीं, आज धर्मान्धता ही व्यक्ति को बांटती चली जा रही है। धर्म का स्थान पहला होना चाहिए - उसके कोई भेद-विभेद नहीं हो सकते। धर्म एक एवं अखंड है। सम्प्रदाय अनेक हो सकते हैं, पर उनमें भी 'मैं ही सच्चा और मैं ही अच्छा' वाली दृष्टि नहीं होनी चाहिए। जिन व्यक्तियों की ऐसी दृष्टि बन जाती है, वे साम्प्रदायिक उन्माद पैदा कर आपस में घृणा, वैर, विद्वेष पैदा कर देते हैं। ये ही विषाणु मानव समाज को विषाक्त बना रहे हैं। कुछ राजनीतिक स्वार्थी तत्त्व भी आपसी सौहार्द्रता और सौमनस्यता को तोड़ने में लगे हुए हैं और इसमें विदेशी शक्तियां भी शायद प्रच्छन्न रूप से अपना काम कर रही है, ऐसा लगता है । अस्तु, अभी चर्चा का विषय यह है कि धर्म वही है जो शुद्ध रूप से मानव धर्म है और ऐसा धर्म मानव-मानव के बीच किसी भी प्रकार के भेदभाव को अस्वीकार करता है । सम्प्रदायें खंडित होती है, सच्चा धम कभी खंडित नहीं होता। अतः अभियान की दृष्टि से मानव धर्म को प्रत्येक व्यक्ति सीधे रूप में अपने जीवन से जोडें और उसकी शिक्षाओं ग्रहण करें। यथार्थ में मानव धर्म कहीं शुद्ध एवं शुभ चरित्र का निर्माता होता है। धर्म द्वारा निर्देशित