Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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चरित्र गति हेतु ग्राह गुणसूत्र व प्रचार नेटवर्क
दूसरों की प्रशंसा नहीं होती।' 30. शिष्य-'ईमानदारी क्यों नहीं टिकती?'
गुरु-क्योंकि व्यक्ति अपने ही लाभ का ध्यान नहीं छोड़ पाता। जहां अपने ही लाभ का ध्यान
हो, वहां ईमानदारी कहाँ?' 31. शिष्य-' श्रेष्ठ क्या-शिक्षा या दीक्षा?'
गुरु-दीक्षा श्रेष्ठ है।' क्योंकि दीक्षा देह को श्रम करने की, मन को करुणाशील रहने की और मस्तिष्क को निष्पाप बनने की शिक्षा प्रदान करती है जबकि दीक्षा विहीन शिक्षा केवल धन
कमाने की कला सिखलाती है। 32. शिष्य-'क्या चाहूँ-सिद्धि या प्रसिद्धि?'
गुरु-'सिद्धि।' क्योंकि प्रसिद्धि के जाल में फंसा व्यक्ति सिद्धि से कोसों दूर होता जाता है
जबकि सिद्धि की प्राप्ति में प्रसिद्धि अपने आप हो जाती है। 33. शिष्य-'क्या अच्छा-विवाद या संवाद?'
गुरु-संवाद।' क्योंकि सुलझे हुए मन-मस्तिष्क में ही संवाद पैदा होता है, जो समन्वय एवं शालीनता को विकसित करता है जबकि विवाद विग्रह तथा वैमनस्य को जन्म देता है, जो अनेकता और विखंडता को पनपाता है। संवाद सुख और शान्ति का मार्ग है तो विवाद दुःख
और अशान्ति का। 34. शिष्य-'क्या करूँ-श्रम या चिन्ता?'
गुरु-श्रम।' क्योंकि श्रम स्फूर्ति देता है, मन में आशाओं को पल्लवित करता है जबकि
चिन्ता, चित्त एवं स्वास्थ्य को चौपट कर देती है। 35. शिष्य-'कौन अच्छा-स्वार्थी या परमार्थी?'
गुरु-'परमार्थी।' स्व-देह के भाव के अहं से मुक्त स्वार्थ ही परमार्थ है। ऐसा परमार्थी ही सच्चा स्वार्थी होता है, जिसके लिए 'स्व' ही सर्व होता है और उस 'स्व' में सर्व की अनुभूति
करता हुआ वह परमार्थ का सर्वोच्च मंगल रूप बन जाता है। 36. शिष्य-'क्या चाहूँ-स्वर्ग या नरक?'
गुरु-'स्वर्ग भी और नरक भी, मुक्ति प्राप्ति की गारंटी में स्वर्ग और मुक्ति प्राप्ति की अयोग्यता
में नरक।' 37. शिष्य-'क्या मांगू-आशा या विश्वास?'
गुरु-'विश्वास।' क्योंकि आत्मविश्वास से भरे व्यक्ति की सारी आशाएं पूर्ण होती है जबकि
मात्र आशावान व्यक्ति अविश्वास के घेरे में आबद्ध होकर ही असफल हो जाता है। 38. शिष्य-'अनुशासन बड़ा या संगठन?'
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