Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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चरित्र गति हेतु ग्राहगुणसूत्र व प्रचार नेटवर्क
तक गति में प्रगति नहीं आती। गति जड़ पदार्थ में भी संभव है, जबकि पराक्रम चैतन्य में ही
होता है। 47. शिष्य-'बहिर्नाद सुनूँ या अन्तर्नाद?'
गुरु-'अन्तर्नाद।' क्योंकि अन्तर्नाद सुनने वाला सद् एवं असद् के विवेक से सम्पन्न हो जाता है। विवेक सम्पन्न साधक आर्त एवं आर्त के कारणों से मुक्त हो जाता है। जबकि आर्तनाद या बहिर्नाद को सुनने वाला संयोग में प्रसन्न तथा वियोग में खिन्न तथा निराश होकर ही जीता है
और मरण भी उसी अवस्था में प्राप्त करता है। 48. शिष्य- बहिर्वेद जानूँ या अन्तर्वेद?'
गुरु-'अन्तर्वेद ।' क्योंकि अन्तर्वेद को जाने बिना बहिर्वेदों का ज्ञान अधूरा है। अन्तर्वेद से ही ब्रह्मा या परमात्मा का स्वरूप ज्ञात होता है जबकि बहिर्वेद मात्र भौतिक जगत् का ज्ञान करवा
सकता है। 49. शिष्य-'सुख चाहूँ या समाधि?'
गुरु-'समाधि।' क्योंकि समाधि आत्मिक होती है जबकि सुख तन एवं मन से संबंध रखता है। आत्मिक समाधि प्राप्त करने वाला तन एवं मन के दुःखों में भी सुख का अनुभव करता
50. शिष्य-'कातर श्रेष्ठ है या दुर्बल श्रेष्ठ है?'
गुरु-'दुर्बल श्रेष्ठ है।' क्योंकि दुर्बल व्यक्ति भय एवं शोक से विमुक्त हो सकते हैं जबकि कातर व्यक्ति सदा भयभीत रहते हैं तथा शोक से संतप्त रहते हैं। कातरता एवं भय के बीच
घनिष्ठ संबंध है। 51. शिष्य- लेना चाहूँ या देना?'
गुरु-देना।' क्योंकि देने वाला अवश्य ही प्राप्त करता है जबकि लेने वाला दिए बिना कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता है। देने वाला बिना चाहे भी सम्मान प्राप्त करता है जबकि सम्मान
दिए बिना सम्मान पाना संभव नहीं है। 52. शिष्य-'कीर्ति चाहूँ या श्लाघा?'
गुरु-कीर्ति।' क्योंकि श्लाघा की परिधि बहुत छोटी एवं स्थानीय होती है जबकि कीर्ति की परिधि सर्व दिक् एवं स्थायी होती है। चाह न कीर्ति की होनी चाहिए और न श्लाघा की। फिर
भी श्लाघा की बजाय कीर्ति श्रेष्ठ एवं ज्येष्ठ है। 53. शिष्य-'उत्सुकता चाहूँ या धैर्य?'
गुरु- धैर्य।' क्योंकि उत्सुकता अप्राप्त को प्राप्त करते ही समाप्त हो जाती है, पर समाप्ति से पहले अन्य अनेक उत्सुकताओं को जन्म देती है जबकि धैर्य अप्राप्त को प्राप्त करने की चाह से ही श्रान्त एवं विश्रान्त होता है।
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