Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
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समरूपता मिलेगी तो उनकी चरित्र के प्रति निष्ठा मजबूत बन जाएगी। निष्ठा मजबूत बनेगी तो उस क्षेत्र में कार्य करने की क्रियाशीलता जागृत हो जाएगी। माध्यम अलग-अलग हों पर चरित्र निर्माण के प्रति व्यापक जागृति बने - यह उद्देश्य रहेगा।
4. गोष्ठियां, वाद-विवाद प्रतियोगिताएं, प्रभात फेरियां आदि : भिन्न-भिन्न वर्गों की दृष्टि से संबंधित वर्ग में इन कार्यक्रमों के द्वारा चरित्र निर्माण के प्रति जागृति उत्पन्न की जा सकती है, जैसे विचारशील, उच्चशिक्षित एवं चिन्तक वर्ग के लिए विचार गोष्ठियाँ बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं और इसी प्रकार वाद-विवाद प्रतियोगिताएं छात्र वर्ग के लिए जिज्ञासा पूर्ति का माध्यम बन सकती हैं । प्रभातफेरियों में सभी तरह के वर्ग सम्मिलित हो सकते हैं और जन साधारण में चरित्र निर्माण अभियान के प्रति उत्सुकता पैदा कर सकते हैं। इन कार्यक्रमों के लिए समय-समय पर विषयों का चयन तथा गीत - प्रगीतों का संग्रह एक विशेषज्ञ समिति द्वारा कराया जा सकता है।
5. सांस्कृतिक कार्यक्रम : चरित्र निर्माण से संबंधित विषयों की जानकारी अल्पशिक्षित अथवा अशिक्षित भाई-बहनों को रचनात्मक रूप से कराने के लिए सांस्कृतिक माध्यम का उपयोग भी किया जा सकता है। नुक्कड़ नाटकों अथवा सांस्कृतिक समारोहों के जरिए चारित्रिक गुणों से संबंधित विशिष्ट पुरुषों के जीवन की झलकियां अथवा नैतिक व्यवस्था की बातों को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया जाए तो आम आदमी गहराई से उन्हें पकड़ सकता है और अपने योगदान के बारे में सोच सकता है। विद्या और बुद्धि पृथक् पृथक् है । अशिक्षित में विद्या नहीं होती, बल्कि बुद्धि का अभाव नहीं होता, बल्कि कई बार देखा जाता है कि अनपढ़ों का बुद्धि कौशल देखकर अचंभित हो जाना पड़ता है । अतः ये सांस्कृतिक माध्यम ऐसे हैं जो दर्शकों के मन पर सीधा प्रभाव छोड़ते हैं। एक बार मन में बैठ जाए कि व्यक्ति से लेकर विश्व तक की सर्वांगीण उन्नति के लिए चरित्र निर्माण कितना अहम है तो फिर उसमें अपना योगदान देने वालों की कमी नहीं रहेगी। पूरा जन समर्थन मिले तो इस अभियान की त्वरित सफलता तथा त्वरित विस्तृति में कोई संदेह नहीं ।
चरित्र निर्माण से प्राप्त होने वाले देवत्व पर सोचते रहिए :
चरित्र निर्माण अभियान के सहभागियों को सदा चरित्र निर्माण से प्राप्त होने वाले देवत्व पर सोचते रहना चाहिए, क्योंकि चरित्रशीलता मानवता के मूल्यों को ही हृदयंगम नहीं कराती, अपितु देवत्व की भूमिका तक भी पहुंचा सकती है। क्या होता है देवत्व ? इस पर जरूर विचार होना चाहिए। यह तो सब ने समझ लिया है कि चरित्र का मूल है अशुभता से निवृत्ति और शुभता में प्रवृत्ति । शुभता जिस परिणाम में विकसित होती उस परिणाम में मनुष्यत्व प्रकट होता है और जब वह शुभता ऊंचाइयां छूने लगती है तो उसी के गर्भ से देवत्व का जन्म होता है। इसे समझने के लिए एक रूपक का सहारा लें। कहा जाता है कि भगवान विष्णु की ओर से देवताओं को प्रीतिभोज का आमंत्रण दिया गया। सभी अतिथियों को दो पंक्तियों में आमने-सामने बिठा कर भोजन परोसा गया और सभी से खाना शुरु करने का निवेदन भी किया गया, किन्तु विष्णु ने कुछ ऐसी माया रची कि सभी के हाथ ही अकड़ गए, किसी का हाथ मुड़ता तक नहीं था । तब समस्या हो गई कि खाएं तो कैसे खाएं? जब सुस्वादु भोजन परोसा हुआ सामने पड़ा हो, पेट में जोरों की भूख भी लगी हो और हाथ नहीं