Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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समूची समस्याओं का हल होगा मनुष्य की चाल व उसके चलन से
महानगरों में खास तौर से बढ़ती ही जा रही है। गंदी बस्तियों की झोंपड़ियों का बदहाल देखकर कोई भी मानव प्रेमी खून के आंसू ही पी सकता है कि जानवरों से भी बदतर हालात में कैसे रहते होंगे ये मानव नामधारी जीव? फिर देश में मानव-मानव के बीच भेदभाव का जहर मिटने की बजाय ज्यादा ही फैला है और सर्वत्र मनुष्यत्व की अवहेलना होती है। अस्पृश्यता के कीटाणु मौजूद हैं तो माना प्रकार के भेदों के आधार पर मानवीय उपेक्षा बढ़ी है। आज मनुष्य ही मनुष्य से भयभीत है, मनुष्य का ही मनुष्य पर विश्वास नहीं है और मनुष्य ही मनुष्य के विरुद्ध षड्यंत्र रचता है, तो कहा क्यों न जाय कि मनुष्यता की रोज हत्या होती है? तो विचार और चिन्ता की बात यही है कि आज का मनुष्य कहां पर खड़ा है? जहां या जिस स्तर पर आज वह खड़ा है, क्या वह वास्तविक विकास का मार्ग है अथवा क्या उसकी दिशा दृष्टि भी विकास पथ की ओर है? इस का उत्तर अपने-अपने दिलों से पूछना ही उचित रहेगा। जो लोग भौतिक विकास के टीलों पर खड़े हैं, वे भांति-भांति की धूर्त-चालों से अपनी सत्ता-सम्पत्ति को बचाने की चेष्टाएं करते रहते हैं, किन्तु अभावों में जी रही बहुसंख्या को अपनी दुरावस्था का न भान है, न होश है-जोश की बात तो दूर रही। मतलब यह कि एक वर्ग धन की बहुतायत से चरित्रहीन बन रहा है तो दूसरा वर्ग अभावग्रस्तता में अपने चरित्र को नहीं बचा पा रहा है यानी कि सब ओर चरित्रहीनता का आलम है। इससे यह न समझा जाए कि लम्बे चौड़े रेगिस्तान में सिर्फ रेत ही रेत है और हरे भरे भूखंड (ओएसिस) नहीं है। आज भी सन्त महात्मा चरित्रनिष्ठ पुरुष तथा उत्साही कार्यकर्ता चरित्र निर्माण के क्षेत्र में अथक रूप से कार्य कर रहे हैं तथा उनके सुपरिणाम भी सामने आ रहे हैं।
तथापि चरित्र निर्माण एवं विकास की दृष्टि से बहुत कुछ करना बाकी है। व्यक्ति के जीवन से लेकर विश्व संचालन तक की सभी व्यवस्थाओं में जो अनियमितता और अवैधता घुस आई है उसको दूर करने के लिए एक ओर व्यवस्था को पटरी पर लाना है तो दूसरी ओर नये मानव का निर्माण भी करना है। मानव में नयापन केवल चरित्र निर्माण तथा सुधार से ही आ सकता है और इस कारण युद्ध स्तर पर चरित्रशीलता उत्पन्न करने के कठिन प्रयास आरंभ किए जाने चाहिए। परम्पराओं, संस्कृति तथा मानवीय मूल्यों के क्षेत्रों में फिर से शुद्धता और शुभता परिपूर्ण बने-इसके लिए पुरानी पीढ़ी को अपने जीवन व्यवहार में अच्छा बदलाव लाना होगा, जिससे नई पीढ़ी प्रभावित हो और श्रेष्ठताओं का वरण करने के लिए तत्पर बने। इसके लिए दोनों पीढ़ियों के बीच प्रगाढ़ सम्पर्क, विचार-विनिमय तथा चर्चा-विचर्चा की आवश्यकता होगी। यदि सच्चाई से सही संबंध बनाए गए तो स्वतंत्रता, आत्मविश्वास एवं आत्मशक्ति का ऐसा भव्य उद्भव होगा कि सदियों का कार्य वर्षों में सम्पन्न हो सकता है। नई पीढ़ी को जब ऊपर से स्नेह मिलेगा तो वह अपने आपको अनुशासित भी बना लेगी। अब फिर से समय आ गया है कि भारतीय संयुक्त परिवार की परम्परा को भी फिर से नया जीवन दिया जाए जिससे चरित्रशीलता पुष्ट हो एवं व्यक्ति, परिवार, राष्ट्र, समाज एवं विश्व भर के परिवर्तन का चक्र तेजी से घूमे।
आज जितनी चरित्रहीनता है, उससे भी अधिक मात्रा में चरित्रशीलता की चाह जागनी चाहिए। चरित्रनिष्ठा की प्राभाविकता के संबंध में महापुरुषों के मार्मिक कथन हैं-जो सम्यक् चरित्र की
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