Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
5. व्यापारियों के ध्यानाकर्षण का गीत : :.
(तर्ज : उड़ते पंछी नील...) जो व्यापारी न्याय नीति से, अपना व्यापार चलाएँ
वो सद्गृहस्थ कहाएँ मानवता से प्यार है जिसको, वो भगवत्ता पाएँ
. वो सद्गृहस्थ कहाएँ गृहस्थ. धर्म का है कर्तव्य, जग सारा है पलता जन-जीवन आधार सहारा, बिन व्यापार न चलता धर्म को सम्मुख रख कर अपना, श्रम से जीवन सजाएँ
वो मानव कहलाएँ.... ||1|| पैसा ही सब कुछ नहीं होता, धर्म ही सब कुछ होता धर्म के पीछे लम्बी चलती, सुरव की नींद वह सोता धोखे की जो होती कमाई, धोखा देकर जाए .
वो मानव कहलाएँ... ||2|| असली वस्तु बता कर नकली, कभी नहीं जो देता निज विश्वास जमाकर जग में उचित नफा जो लेता उसका सुयश बढ़े निरन्तर , गुण सारे ही गाएँ
वो मानव कहलाएँ... ||3|| तृष्णा की है आग भयंकर, सारा यह जग जलता तृष्णा जीते जो व्यापारी, वह सिरमौर है बनता तोल-माप में करके ठगाई, कभी न पाप कमाएँ
वो मानव कहलाएँ... ||4|| व्यापारी की सारख रहे तो लाख गए फिर आए सारव गई तो राख हुई, फिर क्या इज्जत बच पाएँ उतरा पानी मोती का तो, कांच पड़ा रह जाएँ
वो मानव कहलाएँ... ||5|| सत्यशील, संतोष, सादगी व्यापारी के भूषण झूठ, कपट, बदनीति-नीयत-ये व्यापारी के दूषण चरित्रनिष्ठ हो व्यापारी तो सारे गुण विक साएँ
- वो मानव कहलाएँ... || 6॥ लाभ-हानि, सुरख-दुःख ये सारे, कर्मों के हैं नजारें धर्मनिष्ठ हो जो व्यापारी, कभी न इससे हारे समत्व भाव को धारण करके, कर्म 'विजय' कर पाएँ
वो मानव कहलाएँ... || 70
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