Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
शान्ति की बात की जानी चाहिए। इससे अधिक उपयुक्त अवसर दूसरा नहीं हो सकता। चारित्रिक बल का तकाजा होना चाहिए कि वर्तमान परिस्थितियों में ही अहिंसा, समता और शान्ति की बात होबात ही नहीं, उनके विकास व प्रसार की पूरी योजना हो, अभियान व आन्दोलन हो तो जितना जन समर्थन आज मिल सकता है, उतना फिर कभी शायद ही मिले।
विश्व की वर्तमान परिस्थितियों पर एक विहंगम दृष्टि डालें। मजहबी कट्टरवादियों ने जिहाद के नाम पर एक सर्वाधिक शक्तिशाली देश के व्यापार केन्द्र पर आक्रमण कर विनाशकारी लीला दिखाई। उसका नतीजा यह सामने आया कि शक्तिशाली होते हुए भी वह देश भय से कांप उठा, घृणा से भर गया और बदले की आग में जलने लगा। आतंकवाद के विरुद्ध विश्व स्तर पर लड़ने का कई देशों का मोर्चा बना-वह कितना सफल या कितना असफल रहा-इसकी चर्चा छोड़ें। चर्चा तो हम भय, घृणा और हिंसा की कर रहे हैं। शक्ति होते हुए भी हिंसा का विरोध हिंसा से करें और घृणा के विरुद्ध घृणा ही फैलावें तो क्या भय की समस्या का कभी भी समाधान हो सकेगा? आग-आग से नहीं बुझती, पानी से बुझती है। यदि इसी आतंकवाद का सामना अहिंसा, प्रेम और उदारता से किया जाता तो समस्या ही सरलता से समाप्त नहीं हो जाती, बल्कि अपराधियों का हृदय परिवर्तन भी हो जाता। आज भय को जीतने का एक ही उपाय है कि पूरी मानव जाति से प्रेम करो और उसी आधार पर सारी समस्याओं का समाधान निकालो-अहिंसक जीवनशैली का यही संदेश है।
हिंसा, भय, घृणा आदि सारी बुराइयों की जड़ में एक ही सबसे बड़ा दोष है और वह है अहंवादिता में अपने में ही बंद हो जाना (सेल्फ सेन्ट्रेडनेश) और अपनी ही स्वार्थी इच्छाओं के वशीभूत हो जाना (सेल्फिसनेश) और ये दोनों मनोवृत्तियां पूरी मानव जाति में उत्तेजना, उत्पात, विवाद, संघर्ष तथा युद्ध तक की कारणभूत बनती है। इन कुत्सित मनोवृत्तियों के विपरीत होगी वे सदाशयी एवं सद्भावपूर्ण मनोवृत्तियाँ, जो व्यक्ति को मानव जाति की सेवा में मानवता, प्रेम, दयालुता, उदारता आदि सदगुणों से सजाती हैं। असल में तो यह समझने की बात है कि जिस परवाह. लगन और सावधानी से हम अपने हितों की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार अन्य सबके हितों की रक्षा करते हैं। सैनिक या आयुधीय शक्ति का युग बीत रहा है और आत्मशक्ति का युग मानिए कि प्रारंभ हो गया है। अब उस प्रकार के चरित्रनिष्ठ स्वयंसेवियों की नितान्त आवश्यकता है जो सब ठौर दानवता और पशता के विरुद्ध मानवता की स्थापना में जुट जावे। ऐसे चरित्रगठन के लिए प्रत्येक धर्म, वर्ग या समूह को अहंवादिता त्याग देनी चाहिए जिससे सभी लोग सारे विश्व को अपने ही परिवार के रूप में देख सकें तथा सबके साथ वैसा ही प्रेममय व्यवहार कर सकें। आज धर्म-मजहब के नाम पर संघर्ष बढ़ाना और खून खराबा करना नितान्त पागलपन है। यह पागलपन अब अधिक नहीं सहा जाएगा। सभी धर्मनायकों ने सबके साथ प्रेम से रहने का उपदेश दिया है। कहा है-मानव जाति एक है (जैन), जैसे अपने से प्रेम करते हो वैसे ही पड़ौसी से भी प्रेम करो (ईसाई), सभी प्राणियों में ईश्वर के दर्शन करो और उन से प्रेम करो (हिन्दू), तुम सभी एक ही पिता की सन्तान हो इसलिए एक दूसरे के साथ भाई और बहन की तरह रहो (इस्लाम)। सवाल है कि फिर भी परस्पर घृणा, वैर, भय और हिंसा क्यों? इसका कारण आज के धर्म-सम्प्रदायों में फैली अहंवादिता ही है,
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