Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
बात की गई है-पर्याय का अर्थ होता है वर्तमान दशा। जैसे किसी को मैली कमीज पहने हुए देखते हैं तो मुंह से निकल जाता है कि वह कितना गंदा है। लेकिन अच्छे कपड़े वाली उस मैली कमीज को साफ धो डाले तो वह सबको सुहा जाएगी। पर्याय वह है जो मनुष्य के कर्म के अनुसार बदलती रहती है। द्रव्य आत्मा के मूल स्वरूप को कहा है, जो विशुद्धतम होता है। द्रव्य दृष्टि से सभी आत्माएं समान हैं और पर्याय की दृष्टि से भी उनकी अशुद्धता एवं अशुभता को दूर करते हुए शुद्ध एवं शुभ चरित्र का जितना अधिक विकास व विस्तार किया जाएगा, उतनी ही आत्मा की पर्याय स्थिति भी द्रव्यस्वरूप के निकट होती जाएगी। द्रव्य से प्राप्त सभी आत्माओं की समानता को पर्याय की समानता में ढालने के उपक्रम का नाम ही समता है। यह समता मूल्यों पर आधारित होती है तथा गुणवत्ता को प्रोत्साहन देती है साथ ही भौतिक असमानताओं को कदापि सहन नहीं करती है। समता आएगी जब विषमता मिटेगी और विषमता मिटेगी तब जब हिंसा घटेगी:
यह सीधा-सादा फार्मूला है कि जब राज-समाज में हिंसा बढ़ जाती है तो व्यवस्था ढीली होती है और वे लोग अपनी स्वार्थपूर्ति में सक्रिय हो जाते हैं जिनके पास धन, बाहुबल, सत्ता बल या अन्य प्रकार की ताकत होती है। ये निहित स्वार्थी प्रत्येक क्षेत्र में विषमताएं बढ़ाने लगते हैं, जैसे राजनीति में ये लोग उसी को अपना उम्मीदवार बनाएंगे जो उनकी हां में हां मिलाते हुए उनकी स्वार्थपूर्ति को दमन आदि भी करके आसान बना सके या खुद ही खड़े हो जाएंगे। इससे वे योग्य, चरित्रशील तथा लोकतंत्र की नीतियों के अनुसार चलने वाले लोग चुनाव से वंचित हो जाएंगे। इस प्रकार राजनीति विषम होती जाएगी जैसे कि उसका आज अपराधीकरण तक हो रहा है। इसी तरह आर्थिक क्षेत्र में धनिक को अधिक धनी तथा गरीब को ज्यादा गरीब बनाने की रणनीति बड़े उद्योगपति व व्यवसायी चलाते हैं तो आर्थिक विषमता फैलती है। यही क्रम समाज तथा धर्म के क्षेत्र में भी चल पड़ता है कि धार्मिक और गुणवान व्यक्तियों को कोनों में दुबक जाना पड़ता है तथा ढोंगी व पाखंडी ही नेतृत्व की बागडोर अपने हाथों में ले लेते हैं तथा अपने वर्चस्व का सिक्का जमाते हैं । विषमता का फैलाव इस प्रकार चारों ओर हो जाता है, तब लगता है कि ऐसे में समानता का शंखनाद कैसे सफल बन सकेगा?
तो प्रश्न यह उठता है कि हिंसा क्यों बढ़ती है? यह संस्कृति तथा सभ्यता के विकास स्तर का सवाल है कि लोगों के क्रियाकलापों में पशु बल की अधिकता है अथवा मानवीय मूल्यों की? पशु बल का अर्थ है शरीर-बल और उसके साथ ही भौतिक बल के अन्य साधन-शस्त्रास्त्र, सेना सिपाही आदि। इस बल का प्रयोग जितना होगा उतना हिंसा का विस्तार होगा। इसके विपरीत मानव चरित्र में करुणा, दया, क्षमा, सहिष्णुता आदि के गुणों का समावेश होगा तो हिंसा के स्थान पर अहिंसा का प्रभाव बढ़ेगा। हिंसा हटती है तो समझिए कि विषमताएं भी मिटने की दशा में आ जाती है और व्यवस्था भी सुचारू होने लगती है। तब समता को व्यक्ति से विश्व तक की व्यवस्था रचना में समाविष्ट करने में अधिक कठिनाई नहीं रहती। इसके साथ ही यह तथ्य ज्ञातव्य है कि हिंसा की भी जड़ भय-वृत्ति में होती है। हिंसक की जो ताकत बाहर निकलती और दिखाई देती है उसका उद्गम उसके मन के भय से ही होता है। वह जो कभी टूटे नहीं, डिगे नहीं, ऐसी दृढ़ता हिंसक की कभी
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