Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
कारण, जब तक मानव चरित्र सुगठित नहीं होता है तब तक विज्ञान और विकास सार्थक नहीं हो सकता है। सच्ची सार्थकता धर्म देता है जो चरित्र विकास के रूप में प्रकट होती है तथा व्यक्ति से विश्व तक में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने की क्षमता रखती है। धर्म को या यों कहें कि प्रमुख धार्मिक सिद्धान्त अहिंसा को पूर्णतया एक जीवनशैली के रूप में विकसित किया जाना चाहिए। जैसे विज्ञान की भौतिक जगत पर पकड है, वैसी ही पकड आध्यात्मिक जगत पर धर्म की बननी चाहिए। धर्म
और विज्ञान अपने-अपने क्षेत्र में बुनियादी काम करते हुए साथ-साथ में जुड़े और मानव चरित्र के निर्माण में सम्मिलित प्रयत्न करें तो विकास को सर्वथा उपयोगी एवं लाभदायक बनाया जा सकता है। विज्ञान प्रामाणिक ज्ञान देता है किन्तु मूल्य नहीं बना सकता और मूल्यों के अभाव में वह प्रामाणिकता प्रदूषित बना दी जाती है। तब विकास तो होता है, पर मानव-हितों के विरुद्ध । मूल्यों का निर्माण तथा नैतिकता का प्रचलन धर्म द्वारा ही संभव है। वैज्ञानिक धर्म और धार्मिक विज्ञान के सद्भाव में विकास पूर्णतया मानव हितकारी बन सकता है। चरित्र सम्पन्नता का यह त्रिकोण, मानव जीवन का रक्षा-मानव : - धर्म, विज्ञान तथा विकास के नव रूप के साथ यह जो चरित्र सम्पन्नता का त्रिकोण बनता है, इसे मानव जीवन का रक्षा-कवच कहा जा सकता है। यदि मानव जीवन इस प्रकार सुरक्षित हो जाता है। तो समाज, राष्ट्र और विश्व के नवनिर्माण को कोई भी शक्ति प्रतिबाधित नहीं कर सकती है।
- चरित्र सम्पन्नता के इस त्रिकोण की बारीकियां समझिए। इस त्रिकोण की तीन भुजाएं हैं-धर्म, विज्ञान एवं विकास। तीनों भुजाएं जब जुड़ती हैं तब त्रिकोण बनता है और यह त्रिकोण जितना पूर्ण होगा, उतनी ही चरित्र सम्पन्नता की शुभता व्यापक और विस्तृत बनेगी। चरित्र व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण करता है तथा उस व्यक्तित्व को उन सद्गुणों से परिपूरित बनाता है जिनके आधार पर वह आगे से आगे सफलता का वरण करता रहता है। चरित्रशील व्यक्ति के व्यक्तित्व का सर्वव्यापी गुण होना चाहिए-हिंसक जीवन । अहिंसा को पूरी तरह जीवनशैली के रूप में अपनाने के लिए हिंसा से मुंह मोड़ लेना जरूरी है। हिंसा से छुटकारा कब हो सकता है-यह समझने की बात है। हिंसक व्यक्ति कितना ही साहसी या पराक्रमी दिखाई देता है किन्तु असल में वह वैसा होता नहीं है। उस हिंसा के तल में भय होता है और भय की मौजूदगी किसी को भी हिंसक बना देती है। भय व्यक्तित्व को कई रूपों में बांट देता है, व्यक्तित्व में संयुक्तता नहीं रहने देता। संयुक्तता नहीं रहती तो एकाग्रता नहीं बनती। इस कारण व्यक्तित्व को संयुक्त और एकाग्र बनाने के लिए अहिंसा का आधार ही आवश्यक होता है। अहिंसा से सहयोग और प्रेम पैदा होता है और उस कोमल प्रेम से व्यक्तित्व में जो दृढ़ता तथा साहसिकता जागती है, वही चरित्रशीलता में ढल कर नवनिर्माण की प्रखर सहायिका बनती है। मानव व्यक्तित्व की अखंड संयुक्तता कठोरता में नहीं, कोमलता में ही सम्पन्न हो सकती है। जिन पर कष्टों पर कष्ट आते रहे और जो उत्तर में मिठास पर मिठास देते रहे, उनका व्यक्तित्व ही महानता में ढला है। वे किसी से बलिदान लेते नहीं, तिल-तिल अपना ही बलिदान देते हैं और अन्ततोगत्वा वे परम सिद्धि अर्थात् व्यक्तित्व के सम्पूर्ण एकीकरण को साध लेते हैं।
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