Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
दुनिया है जिसे 'अंडरवर्ल्ड' कहा जाता है। यह दुनिया इतनी ताकत पकड़ती जा रही है जो सभ्य स्तर को तनावपूर्ण बना कर अपनी ओर खींचती है। यह सभ्य संसार के विस्फोट का कारण भी बन सकती है। तो ऐसे में धर्म की अपूर्व भूमिका है। इतिहास के पन्नों पर अंकित है कि सभ्य और सज्जन लोगों ने अपने जीवन में धर्म के प्रभाव से इतना परिवर्तन नहीं लाया होगा, जितना आमूलचूल परिवर्तन अर्जुनमाली, अंगुलीमाल जैसे हत्यारे व डाकू और कोशा आदि वेश्याओं जैसे घोरतम अपराधी ले आए। इससे लगता है कि भयंकर डाक और घोरतम वेश्या भी मूल में धार्मिक है। ऐसे में आज धर्म सामाजिक परिवर्तन का कितना शक्तिशाली माध्यम सिद्ध हो सकता है?
दूसरी ओर यदि वैज्ञानिक अपनी प्रयोगधर्मिता के साथ धर्म की ओर खिंचेगा तो वह नहीं होगा जिसे केवल विश्वास या श्रद्धा कहते हैं, बल्कि उससे कुछ अधिक होगा। विश्वास निश्चित रूप से वह है जो शत-प्रतिशत रूप से तर्क पर आश्रित नहीं होता। तर्क-विचार जहां तक जाता है और फिर आगे बढ़ने में असमर्थता के कारण रुक जाता है, वहीं से विश्वास प्रारम्भ होता है। विश्वास का संबल बड़ा महत्त्वपूर्ण होता है। आख़िर वैज्ञानिक भी विरोधाभासों के जाल में उलझता हुआ शोध की दिशा में आगे बढ़ता है तो विश्वास के संबल की ही मदद से। सब कुछ से हार थक जाए तो अंत में केवल विश्वास ही तो रहता है, जिसके सहारे विकास का नया क्रम बनाया जा सकता है। बुद्धि भी अगर विश्वास का आसरा न पकड़े तो वह बांझ ही रहेगी। यह विश्वास बुद्धि का पूरक होता है, जो बुद्धि को नहीं, बुद्धि के दंभ को परास्त करता है और बुद्धि को नम्रता, ऋजुता तथा ग्रहणशीलता के गुण देता है। आज भी ऐसे अनेक वैज्ञानिक हैं जो पूरी तरह आस्तिक हैं और यह आस्तिकता उनके वैज्ञानिक कार्यों में कहीं भी आड़ी नहीं आती है। सच तो यह है कि विश्वास का धनी वैज्ञानिक ही सच्चे अर्थों में सृजनशील बन सकता है। इसमें सच्चे मानव धर्म तथा प्रचलित धर्म के अन्तर को अवश्य समझ लेना चाहिए तथा मानव धर्म को ही विज्ञान की कसौटी बनाना चाहिए। धर्म वस्तुतः एक भावनात्मक वृत्ति है। सामूहिक भाव में उसे धारण रखने के लिए एक मतवादात्मक पात्र आवश्यक होता है। अमुक धर्म मात्र पात्र है, उससे अधिक नहीं। पात्र न हो तो रस किसमें टिके? परन्तु रस स्वयं पात्र नहीं होता और हकीकत में वह पात्र-निर्भर भी नहीं है। विज्ञान शुद्ध मानस-रस के नाते पात्र को भी स्वीकार करें-इसमें कुछ अनहोनी बात नहीं है। यदि रस प्रेमियों का केवल रस पर ही ध्यान केन्द्रित हो तो पात्र भी आपस में कभी खड़केंगे नहीं और न उनमें परस्पर गर्व या बिगाड़ पैदा होगा। परस्पर विवाद अथवा संघर्ष का मूल कारण होता है कि लोग रस को तो भूल जाते हैं तथा पात्र को ही सब कुछ समझ बैठते हैं। यह एक मौलिक भूल है। चाहिए सबको रस और रस ही पीना है-पात्र तो मात्र रस भरने का आधार है। रस आत्मा है और पात्र शरीर-सब ओर आज मृत शरीर (शव) को कंधे पर लटकाए-लटकाए चलने का जो रोग हो गया है. उसे धर्म और विज्ञान की गाढी परस्परता से ही दूर किया जा सकता है। इसी दृष्टि बिन्दु से अब सोचना चाहिए कि धर्म वैज्ञानिक बने, भावना के साथ विचार का भी महत्त्व माने, विश्वास से पहले तर्क को स्थान दे और लोगों को अंध श्रद्धा के गलियारों में भटकाने की बजाए उन्हें सत्याभिमुखी बनावे। इसी प्रकार विज्ञान भी धार्मिक बने, प्रकृति के चेहरे के साथ मानव के चेहरे को जोड़े, विचारांध न बनकर भावनाओं के मूल्य को समझे तथा व्यक्तियों के हाथों में संहारक शस्त्रों की काली ताकत थमाने की अपेक्षा विश्व
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