Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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मानव सभ्यता के विकास की कहानी इसी त्रिकोण पर टिकी है
सिहरन हुई कि न जाने इस प्रकार कितने ही होनहार युवक अभावों से ग्रस्त होकर साधु बन जाते हैं
और ये उभरती तरुणाइयां, जिनमें जीवन का भविष्य उज्ज्वल हो सकता है, यों ही बर्बाद हो जाती है। श्रेणिक इन विचारों की उधेड़बुन में कुछ देर खोया-खोया सा रहा और फिर युवक की आंखों में झांकता हआ-सा बोला-'यदि तम अनाथ हो और तम्हारा कोई सहारा नहीं है तो मैं तम्हारा नाथ बनने को प्रस्तुत हूं।' इस पर उस युवक साधक ने, जिसको साधन के अनंत सागर की कुछ बूंदों का ही रस-स्वाद प्राप्त हुआ था, बड़े ओजस्वी और निर्भय शब्दों में कहा-"तुम तो स्वयं अनाथ हो, फिर मेरा नाथ बनने की बात कैसे कर सकते हो? जो स्वयं अनाथ हो, भला वह दूसरों के जीवन का नाथ किस प्रकार हो सकता है?" . युवक साधक ने यह बहुत बड़ी बात कही थी। यह बात केवल जिह्वा से नहीं, अन्तर्हदय से कही गई थी। उनके शब्द अन्तर से उठ कर आ रहे थे, तभी वे इतने वजनदार और इतने सच्चे थे। राजा श्रेणिक के ज्ञान चक्षु पर फिर भी पर्दा पड़ा रहा। उसने सोचा, शायद युवक को मेरे ऐश्वर्य और वैभव का पता नहीं है। अतः थोड़ा आत्म-परिचय दे देना चाहिए। राजा ने कहा-'मुझे जानते हो, मैं कोई साधारण आदमी नहीं हूं-मैं मगध का सम्राट हूं। मेरा विशाल वैभव एवं अपार ऐश्वर्य मगध के कण-कण में बोल रहा है।' इसके उत्तर में युवक मुनि (अनाथी) ने कहा-'तुम मेरे भाव को नहीं समझे, मेरी भाषा भी नहीं समझे। शब्दों के चक्कर में उलझ कर उनकी आत्मा से बहुत दूर चले गए। तुम तो मगध के ही सम्राट हो, किन्तु चक्रवर्ती और इन्द्र भी अनाथ हैं। वे भी विषय-वासना, भोगविलास और ऐश्वर्य के दास हैं। तुम भी संसार के इन्हीं दासों में से एक हो। तुम अपनी इन्द्रिय, मन
और इच्छाओं के इशारे पर, क्रीत दास की तरह नाच ही रहे हो, तो फिर दूसरों के नाथ किस प्रकार बन सकते हो? जो स्वयं अपने विकारों के समक्ष दब जाता है, अपने आवेगों के समक्ष हार जाता है, वह किस प्रकार दूसरों पर शासन कर सकता है? जब तुम अपने मन की गुलामी से भी छूटकारा नहीं पा सकते हो तो संसार के इन तुच्छ वैभव और ऐश्वर्यों की बात करते हो, जिनके भरोसे तुम दूसरों के नाथ बनना चाहते हो?'
- अनाथी मनि और राजा श्रेणिक का यह संवाद जीवन-विजय का संवाद है। यह संदेश साधना की उस स्थिति पर पहुंचाता है, जहां भक्त को भगवान् के पीछे दौड़ने की जरूरत नहीं रहती, बल्कि जहां वह होता है, वहीं पर भगवान् उतर आते हैं। अनाथी मुनि की वाणी में वही भगवान् महावीर की दिव्य आत्मा बोल रही थी। उन्होंने जो संदेश श्रेणिक को दिया, वह उनका अपना नहीं, महावीर का ही संदेश था। महावीर की आत्मा स्वयं उसके अन्तर में जागृत हो रही थी।
जीवन का लक्ष्य और धर्म का संस्कार तो ऐसा ही होना चाहिए कि भगवान् की ज्योति और प्रकाश साधक के अंग-अंग में प्रकाशित होने लग जाए। उसके संस्कारों का कोना-कोना उसी प्रकाश से आलोकित होने लग जाए। किसी शायर ने ऐसी ही चरम दशा का चित्र उपस्थित करते हुए कहा है-"शहरे तन के सारे दर्वाजों पे हो गर रोशनी, तो समझना चाहिए कि वहां हुकूमत इल्म की।" इस शरीर रूपी शहर के हर गली कूचे और दरवाजों पर यदि रोशनी हो, उसका कोना-कोना जगमगाता हो तो समझना चाहिए कि उस शरीर रूपी शहर पर आत्मा का शासन चल रहा है। वहां का
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