Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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मानव सभ्यता के विकास की कहानी इसी त्रिकोण पर टिकी है
नहीं है। जीवन है तो कुछ न कुछ कर्म भी है। केवल कर्म ही जीवन का श्रेय नहीं, किन्तु कर्म करके अकर्म रहना, कर्म करके कर्म की भावना से अलिप्त रहना-यह जीवन का मार्ग है। बाहर में कर्म
और भीतर में अकर्म-यह जीवन की कला है। कर्म तो जीवन में क्षण-क्षण होता रहता है। गीता में कर्मयोगी कृष्ण की वाणी है, कोई भी क्षण भर के लिए भी अकर्म होकर नहीं बैठता है (न हि कश्चित् क्षण- मपि, जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्)। प्रश्न है कि किस स्तर पर क्या कर्म किया जावे? ___ यहां चरित्र निर्माण एवं चरित्र सम्पन्नता का प्रसंग चल रहा है। चरित्र निर्माण की पहली शर्त यह है कि आप अपने विविध विकारों से धीरे-धीरे ही सही, मुक्त होने का सत्कर्म करते रहे। यह सत्कर्म ही चरित्र निर्माण के धरातल को पुष्ट बनाता हुआ आगे तक ले जाएगा। विकार मुख्यतया दो स्थूल भागों में बांटे जा सकते हैं-एक विषय अर्थात् काम, कामनाएं, वासनाएं आदि तथा दूसरा कषाय अर्थात् काषयिक वृत्तियां जैसे क्रोध, मान, माया, लोभ आदि । कामनाओं एवं इच्छाओं को जीत लेना प्राथमिक कार्य होता है। वासनाओं को जीतने का अर्थ है विषय को जीत लेना और इससे विकारविजय का मार्ग निष्कंटक हो जाता है। काम तो जीता, कामनाओं को जीता तो फिर कषायों पर विजय दुष्कर नहीं रहती है। तथापि क्रोध, मान, माया, लोभ के विकारों की ताकत कम नहीं होती, जो मनुष्य को अपने जीवन में पीछे की ओर खदेड़ती रहती है। __आइए, सबसे पहले क्रोध विकार की विस्तृत चर्चा करें। क्रोध को जीवन की सबसे बड़ी पराजय के रूप में देखा गया है। विद्वानों की सभा में चर्चा चली कि संसार में विष क्या है (विसं किम् )? सभासदों ने अलग-अलग उत्तर दिए। किसी ने संखिया को तो किसी ने तालपुट जहर को
और किसी ने अफीम को तो किसी ने अन्य पदार्थ को विष बताया। तब एक मनीषी सन्त ने उक्त प्रश्न का उत्तर दिया-क्रोध विष है (कोहो विसं)। एक कवि मुक्तक में बताता है
"बिच्छू का जहर अंग को तिलमिला देता है। सर्प का जहर उम्र के वृक्ष को हिला देता है। औरों के जहर के नुकसान की तो सीमा है,
मगर आदमी का जहर संसार को जला देता है।" क्रोध आत्मा को ऊर्ध्व गति से गिरा कर अधोगति में पटक देता है। क्रोध प्रीति एवं प्रतीति का विनाश करता है (कोहो पीई पणासेइ)। भक्त सूरदास कहते हैं-"सूरदास खल कारी कामरी, चढे न दूजो रंग"-यानी जैसे काली कजरारी चादर पर दूसरा कोई भी रंग नहीं चढ़ सकता है, वैसे हा क्रोध युक्त आत्मा पर चरित्र का धवल रंग नहीं चढ़ सकता है। एक सच्चाई यह है कि साढे नौ घंटों के परिश्रम से व्यक्ति को जितनी शारीरिक थकान नहीं आती, उससे अधिक थकान पन्द्रह मिनट के क्रोध में हो जाती है तथा उससे भी अधिक थकान मानसिक होती है सो अलग। क्रोध से शारीरिक, मानसिक, आत्मिक आदि सभी शक्तियां क्षीण होती रहती है।
क्रोध की तीन श्रेणियां बताई गई हैं-1. जघन्य, 2. मध्यम एवं 3. उत्कृष्ट। उत्तम पुरुषों को क्रोध आता नहीं, कभी आ जाए तो जल में खिंची रेखा के समान होता है-आगे पाट, पीछे सपाट। मध्यम पुरुषों को कभी-कभी क्रोध आता रहता है और अल्प समय के अन्तराल में समाप्त हो जाता
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