Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
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मेघ मुनि अपने ही पूर्व जन्म की कथा सुनकर विचार मग्न हो गए-सन्तों के चरण तो कमल रूप होते हैं उनका कैसा पदाघात, वे इतने से कष्ट से क्यों विह्वल हो गये जबकि खरगोश की जीवन रक्षा हेतु उन्होंने पदाघात नहीं किया और ऐच्छिक मरण का चयन किया। भावों की उत्कृष्टता ने उनके चंचल मन को संयम में सदा के लिए सुस्थिर बना दिया ।
कथासार इस रूप में ग्रहण किया जा सकता है कि बिगड़ा हुआ मन बिगड़े हुए घोड़े की तरह हो जाता है और वह आसानी से नहीं सुधरता उसे पदाघात की आवश्यकता होती है। पदाघात से भ्रमित - चेतना लौटती है और पश्चात्ताप की स्थिति पैदा होती है। वह आत्म-संशोधन की दशा होती है। पदाघात और संशोधन का शायद आपस में गहरा संबंध होता है, जो प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कभी न कभी प्रत्यक्ष रूप से अनुभव में आता है। चरित्र निर्माण एवं विकास की रचनात्मक यात्रा में इस सम्बन्ध को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए ।
सच्चा धर्म सदा शुभतामय, पर सम्प्रदाएं भी शुभता की वाहक थी :
सच्चा धर्म सर्व-शुभता का प्रतीक होता है और तदनुरूप आचरण पर बल देता है । चरित्र ऐसी शुभता का व्यापक प्रसार करता है और समाज को शुभतामय बनाता है । चरित्र सच्चे धर्म का अनुसरण करता है, किन्तु सच्चे धर्म के स्वरूप को अन्तःकरण पूर्वक समझना चाहिए। आन्तरिकता में जो पवित्र सर्वहितकारी भाव तरंगें उठती है, जागृत चेतना की निर्मल धारा बहती है, मन-मानस में शुद्ध संस्कारों का एक प्रवाह उमड़ता है क्या वही सच्चा धर्म है? अथवा बाहर में जो हमारा कृतित्व है, क्रियाकांड है, रीति रिवाज है, जीवनशैली के तौर-तरीके हैं- क्या वे धर्म हैं? संक्षेप में हमारा आन्तरिक व्यक्तित्व धर्म है या बाह्य व्यक्तित्व ? व्यक्तित्व के ये दो रूप होते हैं- आन्तरिक एवं बाह्य । आन्तरिक व्यक्तित्व वह जो वास्तव में हम जैसे अन्दर में होते हैं उस 'होने' से निर्मित होता है और बाह्य व्यक्तित्व वह जो हम जैसा बाहर में करते हैं- उस 'करने' से निर्मित होता है। प्रश्न यह है कि 'होना' और 'करना' इनमें धर्म कौनसा है यानी कि व्यक्तित्व का कौनसा रूप धर्म है? सच पूछे तो : 'होना' और 'करना' में बहुत कम व्यक्ति समझ पाते हैं, क्योंकि आन्तरिक व्यक्तित्व को सही-सही वे ही समझ सकते हैं जो निकट सम्पर्क में हों और गुणी व विवेकशील भी हों । परन्तु बाहरी व्यक्तित्व को समझ लेना उतना कठिन नहीं । सामान्य व्यक्ति भी बाहर के क्रियाकलापों से अपना निष्कर्ष निकाल लेता है। उसका निष्कर्ष बाहरी ही होता है अतः बाहर के व्यक्तित्व को ही सामान्य रूप से समूचा व्यक्तित्व मान लिया जाता है तथा उसके ही आधार पर धर्म का स्वरूप भी निर्धारित हो जाता है। आशय यह कि आज बाहरी व्यक्तित्व मात्र ही हमारा धर्म बन रहा है । यह स्थिति विडम्बना पूर्ण है।
विचार करें कि आन्तरिक व्यक्तित्व और बाह्य व्यक्तित्व में क्या अन्तर है? मोटे तौर पर समझें कि आन्तरिक आत्मा है और बाह्य है शरीर, शरीर में आत्मा रहेगी तभी वह जीवन्त कहलायेगा, वरना मृत शरीर का क्या मूल्य है- यह सभी जानते हैं। जितना जिसका आन्तरिक और बाह्य व्यक्तित्व एकरूप होगा, वह उतना ही निष्कपट और सरल होगा। इसके विपरीत जिसका अन्तर बाह्य भिन्नभिन्न होगा, वह उतना ही कपटी और धूर्त होगा। अब प्रश्न यही है कि किसी भी व्यक्ति को सामान्य