Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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नई सकारात्मक छवि उभरनी चाहिए धर्म सम्प्रदायों की
लोग उसके बाह्य व्यक्तित्व से ही जान पाते हैं, फिर सही व्यक्तित्व की परख कैसे हो? धूर्त व्यक्ति के भीतर स्वार्थ का कपट जाल होता है, लेकिन बाहर में वह वैसा अभिनय कर सकता है जैसे कि उसके जैसा ईमानदार दूसरा नहीं। एक बार ऐसा अभिनय चल सकता है, लेकिन हमेशा नहीं चलताभीतर का विकार बाहर फूटे बिना नहीं रहता और जब फूटता है तो सारा भंडाफोड़ हो जाता है। इस कारण वास्तविकता यही माननी चाहिए कि जो कुछ व्यक्ति का आन्तरिक व्यक्तित्व है, वही उसके चरित्र की और धर्म की कसौटी है। सच्चा धर्म हृदय में रहता है और वह बाहर प्रकट हुए बिना नहीं रहता। असल नकल का खेल कुछ वक्त के लिए चल सकता है, हमेशा के लिए नहीं। इसलिए परख बुद्धि की धार को सदा तीक्ष्ण बनाए रखना चाहिए। __ सच्चे धर्म का दर्शन करने की जिनकी जिज्ञासा हो, उन्हें सारे बाहरी आवरणों को हटा कर भीतर में झांकना होगा, क्रियाकांडों की बाह्य भूमिका से ऊपर उठ कर मन को आन्तरिक भूमिका तक चलना होगा। तब स्पष्ट होगा कि धर्म तो एक अखण्ड, शाश्वत और परिष्कृत विचार है और हमारी विशुद्ध आन्तरिक चेतना है। मुक्ति उसे ही मिल सकती है, जिसकी साधना समभाव से परिपूर्ण है। जो दुःख में भी और सुख में भी सम है, निर्द्वन्द्व है, वीतराग है-वही है धर्मनिष्ठ। लोग वर्षा के समय बरसाती ओढ़ कर निकलते हैं, कितना ही पानी बरसे, वह भीगती नहीं, गीली नहीं होती और पहिनने वाले को पानी से बचाती है, फिर पानी बह गया और बरसाती सूखी की सूखी। समता के साधक का मन भी बरसाती के समान हो जाता है। सुख का पानी गिरे या दुःख का-मन को भीगना नहीं चाहिए-यही धर्माराधना है और यही समता की साधना है। यही द्वन्द्वों से अलिप्त रहने की प्रक्रिया है और यही वीतरागता की उपासना है। यही वीतरागता हमारी शुद्ध अन्तश्चेतना है और यही हमारा धर्म है। यही धर्म भीतर पलता है और बाहर फलता है। इस सच्चे धर्म में केवल शुभता हैसबका शुभ चाहने की भावना है और सबके लिए शुभ ही करने की कामना है। ऐसे धर्म में विवाद और संघर्ष कैसे हो सकता है? इसका तो जिसको भी स्पर्श मिलेगा, वह धन्य हो जायेगा-'स्व' को भल कर 'पर' के शभ में इतनी तल्लीनता से निमग्न हो जाएगा कि जब तक उसका चरित्र उत्कृष्टता के शिखर तक न पहुंचे, वह समता की साधना में निरत रहेगा। ___ यह सच है कि सच्चा धर्म सर्वथा और सदा शुभतामय ही होता है और सच यह भी है कि इसी शुभता की वाहक बन कर सम्प्रदायों ने प्रारम्भ में शुभता के साध्य को ही फलीभूत करने के प्रयास
सम्प्रदाय का अर्थ है समान रूप से देना। सम्प्रदाय क्या देने के लिए बनी और वह क्या वस्तु थी जो उन्हें सबको समान रूप से देनी चाहिए थी? धर्म का एक सन्देश रहा है कि अपना ऐसा चरित्र गठित करो जो सबके लिए शुभ हो, शुभता देने वाला हो। इसी सन्देश को विभिन्न सिद्धान्तों का पुट देकर सभी धर्म प्रवर्तकों ने बार-बार गुंजाया है और इसी सन्देश को व्यक्ति-व्यक्ति के हृदय में उतारने का दायित्व सम्प्रदायों ने उठाया कि वे शुभता-सन्देश समान रूप से व्यक्ति-व्यक्ति को दें, समूह-समूह को दें और सारी व्यवस्था में उसका समावेश करावें। सम्प्रदाएं यथार्थ में सच्चे धर्म की ही वाहिकाएं थीं, जो प्रवर्तक के जन-प्रभाव को बनाए रखकर धर्म की ज्योति को जलाए रखती थी ताकि सामान्य जन के समक्ष विकास का मार्ग स्पष्ट रहे।
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