Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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चरित्र को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ले जाने हेतु सद्भाव जरूरी
सारी सामाजिक विषमताओं को मिटाने का एक कारगर माहौल बन सकेगा। यह नया अर्थशास्त्र इन सिद्धान्तों के आधार पर रचा जाना चाहिए
1. आवश्यकतानुसार उत्पादन : वैश्विक अर्थ व्यवस्था की दृष्टि से दो निर्णय लिये जाने चाहिए-एक तो यह कि उन्हीं वस्तुओं का उत्पादन किया जायेगा जो दुनिया की सारी आबादी के लिए सुखमय जीवन निर्वाह हेतु आवश्यक हो। व्यर्थ के विलासिता के उत्पादन बंद हो जाए और वे सभी उत्पादन भी बंद हो जो स्वास्थ्य घातक व्यसनों के रूप में आज चल रहे हैं। दूसरे, आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन भी उस नियमित मात्रा में होता रहे जो सभी विश्व नागरिकों के जीवन निर्वाह हेतु आवश्यक हो-अतिरिक्त उत्पादन न हो। उत्पादन में गुणवत्ता और मात्रा की आवश्यकताओं के अनुसार किए जाने का अभिप्राय यह है कि फिर ऐसे व्यापार का वजूद नहीं बचेगा जो सिर्फ मुनाफा कमाने के आधार पर ही चलता और टिकता हो। उस समय व्यापार का दृष्टिकोण मात्र यही रहेगा कि उत्पादित सामग्री को स्थान-स्थान पर समयानुसार पहुंचा कर या कच्चा माल लाकर सुविधा की स्थिति बनाई जाए। पदार्थों का मूल्य निर्धारण उत्पादन की लागत तथा सुविधा व्यय के अनुसार किया जाएगा, जिसमें मुनाफे जैसी कोई राशि शामिल नहीं होगी। इस व्यवस्था से शोषण पूरी तरह समाप्त हो सकेगा। ____ 2. संविभाग अर्थात् सम-वितरण : संविभाग क्या? शब्द का अर्थ है बराबर बांटना। आज जो बांटने की प्रक्रिया है वह बन्दरबांट है। धूर्तों की माल मारने की मनमानी चलती है और उत्पादक किसान, मजदूर तक अभावों में जिन्दगी जीने को मजबूर होते हैं। वैश्विक अर्थ व्यवस्था में पूरे विश्व को एक परिवार का रूप ही समझना और मानना होगा तथा संविभाग के अर्थ को पारिवारिक ढंग से ही लेना होगा। जैसे एक संस्कारित परिवार में कमाते सभी स्वस्थ परिजन हैं किन्तु यह हिसाब नहीं लगाया जाता कि कौन कितना यानी कम-ज्यादा कमाता है। हां, अधिक उपार्जन कर सके ऐसी योग्यता सभी स्वस्थ परिजनों में पैदा की जाती है। बाद में जो भी जितना कमाता है-सम्मिलित कोष में चला जाता है। किन्तु सबको उपभोग-परिभोग की जो सामग्री मिलती है वह समान रूप से और प्रत्येक की आवश्यकता के अनुरूप अर्थात् वृद्ध, रोगी या बालक सदस्यों के अर्जन योग्य न होने पर भी उन्हें अधिक पौष्टिक आहार दिया जाता है। इस प्रकार की व्यवस्था में किसी का कोई विरोध नहीं होता, बल्कि अनुरागपूर्वक स्वेच्छा से सहयोग दिया जाता है, तो विश्व परिवार की व्यवस्था का भी मौलिक रूप से ऐसा ही स्वरूप होना चाहिए। प्रश्न यह है कि ऐसी लोकप्रिय व्यवस्था कैसे कायम की जाए? __ ऐसी सर्वप्रिय एवं सर्वहितैषी अर्थ व्यवस्था की स्थापना के सफल सूत्र महावीर ने जैन दर्शन में बताये हैं। ये सूत्र मात्र वैचारिक ही नहीं रहे हैं, बल्कि उनके अनुयायी इन पर यथाशक्ति आचरण भी करते आ रहे हैं। इस दृष्टि से नये अर्थशास्त्र का आधार सूत्र होना चाहिए-मर्यादित जीवन ऐसा जीवन जिसमें मर्यादाओं के पालन का सर्वोपरि स्थान हो। मर्यादाओं के पालन से ही संविभाग अर्थात् समवितरण का सूत्र निकलता है। जैन साधु का तो सर्वथा परिग्रह मुक्त जीवन होता ही है, किन्तु एक जैन श्रावक को भी परिग्रह रखने तथा उपभोग-परिभोग की सामग्रियों के उपयोग करने की निश्चित
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