Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
बनाया जाए। यह जरूर है कि बनावटी आधारों पर जुड़ाव होने से वैसी विविधता प्राणवान् नहीं बन सकेगी। उसकी पृष्ठभूमि वास्तविक होनी चाहिए।
चरित्र निर्माण तथा विकास का दौर इस मोड़ से गुजरना चाहिए कि मनुष्य जाति की एकता तथा मानवीय मूल्यों की गुणवत्ता का आदर्श सर्वोपरि रहे और उस आदर्श की छांव में ही सभी प्रकार की विविधताएं विविध होकर भी एकता की जड़ों को मजबूत करें। अत: यह कहने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि विविधताओं से भरी सामाजिकता को हजार जिह्वाओं से बोलने दो, विचार प्रकाशन को रोको मत, किन्तु जिह्वा का आदर्श सम्मुख रहे। चरित्र सम्पन्नता का लक्ष्य बने विश्वस्तरीय चरित्र का गठन : ___ समाज आज जिन विषम परिस्थितियों से गुजर रहा है, समाज विरोधी कुकृत्यों का जाल फैल रहा है. भ्रष्टाचार. अपराध और अव्यवस्था सबको द:खी बना रही है और जिस प्रकार समाज का एक बहुत बड़ा भाग गरीबी, अशिक्षा, बीमारी, बेरोजगारी आदि बुराईयों से जूझ रहा है, इन सबके मल में चरित्रहीनता ही मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं। चारों ओर सामहिक चरित्र का अभाव सा दिखाई देता है क्योंकि व्यक्ति ही चरित्रशील नहीं बन रहा है। वास्तव में जब सामूहिक (परिवार, समाज, राष्ट्र, विश्व आदि) चारित्र का अभाव होने लगता है तो वह स्थिति विकास के लिए घातक बन जाती है। व्यक्ति की चरित्रहीनता के कारण सामूहिक चरित्र का विकास नहीं हो पाता है और उसके बिना कहीं भी नवनिर्माण की संभावनाएं धूमिल पड़ जाती है।
चरित्र की सामान्य व्याख्या करे तो यही होगी कि आपका जीवन जिस रूप में दिखाई देता है और कर्त्तव्यनिष्ठा की दृष्टि से जिस रूप में दिखाई देना चाहिए वह वास्तव में अन्दर से भी वैसा ही हो-उसमें दोहरापन न हो। फिर आचरण की सीमा में सभी प्रकार की मर्यादाओं का पालन किया जाए जो सर्वत्र अनुशासन के लिए आवश्यक होती है। आप अपनी दिनचर्या में, धन कमाने में, परस्पर व्यवहार करने में उन सामाजिक मर्यादाओं का पालन करते हैं जो नीति द्वारा निर्धारित है तो वह सामान्य चरित्र का रूपक हो जाएगा। सामूहिक चरित्र का विकास तभी हो सकेगा, जब व्यक्ति पहले अपने जीवन को चरित्र सम्पन्न बनाने का प्रयास करेगा। व्यक्ति के जीवन में आज जो चरित्रहीनता दिखाई दे रही है उसका यह कारण है कि व्यक्ति अपने जीवन का वास्तविक उद्देश्य निर्धारित नहीं कर पाता है और कहीं कहीं निर्धारण होता भी है तो उसकी गति स्थिर नहीं रहती। उद्देश्यहीनता चरित्र सम्पन्नता को पनपने ही नहीं देती है। उद्देश्यहीन व्यक्ति का चरित्र उसके परिवार के लिए सहायक नहीं बनता, अपने सामाजिक दायित्वों का निर्वाह नहीं करता तो राष्ट्रीय कर्तव्यों के पालन से भी उपेक्षित हो जाता है। व्यक्ति से समाज की रचना बनती है। व्यक्तिगत चरित्र यदि समृद्ध बन जाता है, समता के धरातल पर ममता के बंधनों को शिथिल बना देता है तो उस चरित्र का सुप्रभाव अन्य व्यक्तियों पर पड़े बिना नहीं रहता है। यों जब अनेक चरण शुभता की ओर चल पड़ते हैं तो वे विश्व संगठन को भी एकता के सूत्र में आबद्ध कर सकते हैं।
चरित्र सम्पन्नता से ही गुणों का विकास होता है, समाज में न्याय की स्थापना होती है तथा विश्व
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