Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
उसका संबंध वर्तमान तथ्यों तथा भविष्य की योजनाओं के साथ परिणाममूलक रीति से जोड़ा जाता है। व्यक्ति की विचार शक्ति भी इस दृष्टि से व्यापक और गहरी बनी है।
विज्ञान के विकास को ही इसका अधिकांश रूप से श्रेय देना होगा कि आज विश्व में सभी प्रकारों से एकता की स्थापना के प्रति सामान्य जनता की निष्ठा बढ़ी है। किसी भी देश में रहने वाले नागरिक के मन-मानस पर संसार के किसी भी कोने में घटित होने वाली घटनाओं का असर पड़ता है, क्योंकि विज्ञान ने दूरियां काटकर दुनिया को एक बस्ती का रूप दे दिया है तो सोच के संकुचित दायरे भी तोड़ दिये हैं। जब चरित्र गिरता है तब अच्छाई भी बुराई का साधन बना दी जाती है :
ज्ञान-विज्ञान के अब तक के विकास का पोस्टमार्टम करते समय इस सत्य का आभास अवश्य लेना चाहिए कि प्रत्येक युग में विकास या अविकास की स्थितियों में कौनसा तत्त्व मुख्य रूप से जिम्मेदार रहता है। अच्छाई या बुराई-ये सापेक्ष गुण होते हैं जो कर्त्ता पर आधारित हैं। जहां तक साधनों का सवाल है, उनकी गुणवत्ता कर्ता की मनोवृत्ति पर मुख्यतः आश्रित होती है। तलवार को ही ले लें-यह एक शस्त्र है जिसका उपयोग रक्षा के लिये भी किया जा सकता है तो वध के लिये भी। साधन के रूप में तलवार को कैसी मानें? वास्तव में व्यक्ति का उपयोग ही निर्णायक होता है। यदि तलवार का सदुपयोग होता है तो उससे दुर्बल एवं असहाय व्यक्तियों की रक्षा की जा सकती है, उन्हें आततायियों के अन्याय से बचाया जा सकता है अथवा केसरिया बाना पहिन कर जौहर रचाया जा सकता है। तलवार के दुरुपयोग के तो हजारों नृशंस कार्य हो सकते हैं।
अतः मूल प्रश्न है किसी भी साधन के सदुपयोग का या दुरुपयोग का। यह खेल खेलती है मनुष्य की वृत्ति एवं प्रवृत्ति। नतीजा यह निकलता है कि अच्छाई या बुराई की मौलिक जिम्मेदारी मनुष्य की ही होती है। मनुष्य की वृत्ति या प्रवृत्ति का मूल कारक होता है उसका चरित्र । इस दृष्टि से जिस युग में जब-जब मनुष्य का व्यक्तिगत तथा समाज का सामुदायिक चरित्र गिरा है, तब-तब प्रत्येक अच्छाई यानी अच्छे साधन-साधनों का दुरुपयोग अधिक हुआ है और उस रूप में उसे बुराई का साधन बना दिया गया है। यों सारी अच्छाई-बुराई या उत्थान-पतन का भार मनुष्य और उसके चरित्र पर आ टिकता है। ज्ञान-विज्ञान के विकास को इसी दृष्टिकोण से परखना और आंकना चाहिये।
ज्ञान और उसके प्रभाव से आध्यात्मिकता, धार्मिकता या नैतिकता का खूब प्रसार हुआ, किन्तु जब उसी का दुरुपयोग मठाधीशों, सत्ता के दलालों अथवा निहित स्वार्थियों ने करना शुरु किया तो वही दायित्त्वपूर्ण भावना शोषण एवं उत्पीड़न की मददगार बना दी गई। शीर्ष पर बैठे नायकों को यश और वर्चस्व की लालसा जगी तो सिद्धान्तों को तोड़-मोड़ कर अपनी स्वार्थपूर्ति के अनुसार उनका अर्थ निकाला जाने लगा। यह भी कोशिश हुई कि आम लोग कट्टर बनें, किन्तु जानकार न बनें, ताकि वे अंधी भक्ति और श्रद्धा के दलदल में जकड़े रहें। इस प्रकार निहित स्वार्थी लोगों तथा वर्गों ने सामाजिक हित की भावना को छोड़ कर व्यक्तिगत या वर्गगत स्वार्थों की पूर्ति के लिये प्रत्येक
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