Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
और उसी तरह एक पंक्ति में बिठाया। चारों की थालियों में लेकिन एक जैसे खाद्य पदार्थ- मकई की मोटी रोटियाँ, पत्तीदार सब्जियाँ और घी-गुड़ बस । चारों ने चारों थालियाँ देखी- किसी की भी सहज मुद्रा में कोई भेद नहीं उभरा। सब एक से प्रसन्न, भोजन के लिये उत्सुक और भोजन के बाद सभी के मुख से भोजन तथा मेजबान दोनों की सराहना। इस मन:स्थिति पर भी आप सोचिये कि एक सामान्य जन के लिये भी पदार्थ का अधिक महत्त्व है अथवा समतापूर्ण व्यवहार का। ____ आप बाहर के पदार्थों से हटकर जब भीतर की भावना तक पहुँचेंगे तो इन दो दृश्यों का सारा रहस्य उजागर हो जाएगा। एक से एक बढ़कर मूल्यवान और स्वादिष्ट व्यंजन सामने हो, फिर भी भावना को सन्तोष नहीं मिलता। दूसरी ओर सामान्य व्यंजन, किन्तु समता भावना का सुख अपार। यही दोनों दृश्यों का साफ अन्तर है। समझ लें कि भीतर प्रसन्नता तो बाहर सब खुशनुमा और भीतर में असन्तोष तो बाहर कैसी भी प्राप्ति से कोई सुख नहीं, बल्कि रोष और आक्रोश। इस मन:स्थिति को दो शब्दों में समेटें तो कहेंगे समता और विषमता अथवा समानता और असमानता। भावनात्मक रूप से प्रत्येक मनुष्य को समता सर्वदा और सर्वत्र प्रिय, अनुकूल तथा प्रमोदकारक लगती है लेकिन किसी भी स्थिति में विषमता लगती है अप्रिय, प्रतिकूल और खेदजनक। इन्हीं भावनाओं को नानाविध व्यावहारिक रूपों में प्रतिबिम्बित करेंगे तो व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन के अनेक चित्र अपनी वास्तविकता में आपकी आंखों के सामने चित्रित हो जाएंगे, जो आपके साथ प्रतिदिन की चर्या में जाने-अनजाने घटित होते रहते हैं। ___ समता को आरंभ की कड़ी बनावें अपनी अन्तःकरण की भावना से। समता मानव-मन को
अधिकतम मधुर महसूस होने वाली भावना होती है- उसके सामने बहुमूल्य पदार्थ या बाहर की सारी प्राप्तियाँ नगण्य बन जाती है। मनुष्य छोटा हो या बड़ा, धनी हो या निर्धन, बली हो या निर्बल, ज्ञानी हो या अज्ञानी- सभी अपने प्रति व्यक्त या व्यवहत की गई समता की भावना को बखूबी समझाते हैं
और उसे सदा चाहते हैं। परन्त यह किसी का स्वार्थ या अज्ञान ही होता है कि जैसी भावना वह अपने लिये चाहता है, वैसी ही भावना दूसरों के प्रति व्यक्त या व्यवहृत नहीं करता। आशय यह है कि मानव मन के मूल में समता की ही चाह होती है। अतः वैसे चरित्र निर्माण की प्राथमिक आवश्यकता है कि आप चरित्रनिष्ठ बनकर सब को समता की चाह का सम्यक् बोध करावें, उस की भावना को जागृत करें तथा समता के व्यापक व्यवहार का सार्वजनिक रूप से अभ्यास करावें। समस्या यही है, किन्तु इसका समाधान कठिन नहीं है। एक स्वस्थ बदलाव के साथ व्यवहार की धारा को नया रूप देना होगा। इस धारा का एक बार बहाव आरम्भ हो जायगा तो फिर वह विवेक के साथ चलता रहेगा। यही समता की आरंभ की कडी होगी।
अन्त की कडी का अर्थ है कि यह धारा एक स्थाई व्यवस्था के रूप में परिवर्तित हो जाए अर्थात समता अन्त की कड़ी बनकर सदा प्रवर्तित रह सके। समता के समरस में डूबे समाज के लिये समता साधन भी होगी तो वह साध्य भी बनी रहेगी। सत्य यह है कि वह अन्त की कड़ी अन्त की न रहकर मोक्ष के अनन्त का विस्तार बन जाएगी। अब समता की व्यवस्था को जरा गहराई से समझें। प्रकृति के साम्राज्य में कहा जाता है कि किन्हीं भी दो मनुष्यों की आकृति, ध्वनि या प्रकृति एकदम समान कतई
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