Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम् ।
चरित्रहीनता से व्यवस्थाएं सड़ रही हैं, आपराधिकता बचे खुचे मूल्यों को निगल रही है: - चरित्रहीनता का महारोग प्रत्येक प्रकार की व्यवस्था, जिसमें राज्य व्यवस्था भी शामिल है, को जकड़ता जा रहा है। जहां यह महारोग लगा, वहां कर्त्तव्य बुद्धि को नष्ट कर देता है, चरित्र और नैतिकता का नाश तथा समाज के प्रति दायित्वहीनता ला देता है। जहां भी जैसी भी गुंजाइश मिलती है, भ्रष्टता से स्वार्थ पूर्ति की कुचेष्टा ही लगी रहती है। इस पर यह समझना जरूरी है कि व्यवस्था क्या होती है और वह किन कारणों से सड़ती यानी निरर्थक हो जाती है? देश या राज्य की सरकार हो, छोटा-मोटा या विश्व स्तर तक का भी कोई संगठन हो अथवा किसी भी विषय से संबंधित समाज, संस्था या संस्थान हो, उस की विधिवत् या नियमबद्ध व्यवस्था स्थापित की जाती है ताकि उसका संचालन उद्देश्यपूर्ति की निश्चित दिशा में एक निश्चित लीक पर हो। ऐसे ही कोई भी व्यक्ति अपनी जीवनचर्या, यहां तक कि दिनचर्या भी निर्धारित कर सकता है, ताकि गति एवं प्रगति का क्रम बना रहे। यही होती है और कहलाती है व्यवस्था तथा किसी भी व्यवस्थित स्थिति की सब ओर सराहना की जाती है। व्यवस्था अर्थात् विशेष अवस्था, जिसका प्रारूप लिखित, धारित, पारम्परिक या कैसा भी हो सकता है? यह सत्य है कि व्यवस्था के बिना कोई भी संगठन या जीवन वास्तविकता एवं प्रगतिशीलता नहीं पकड़ता। यह सत्य व्यक्ति से लेकर विश्व के सामुदायिक जीवन तक लागू होता है।
- कैसे भी स्वरूप में हो, सर्वत्र व्यवस्था बनती है और वह परम्परा में ढलती है। किन्तु व्यवस्था के निर्माता ही जब व्यवस्था का दुरूपयोग करने लगे और उसे चरित्र तथा नीति के स्तर से नीचे गिरा दें तो वह व्यवस्था असंतुलित हो जाती है तथा आवश्यक परिवर्तनों के अभाव में सड़ने लगती है-जनता का शुभ करने की अपेक्षा अशुभता की वाहक बन जाती है। परिवर्तन किसी भी व्यवस्था की सुचारूता का धर्म होता है। जैसे राजनीतिक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए संविधान बनाया जाता है, पर उसमें भी समय-समय पर वांछित संशोधन किये जाते हैं ताकि उस लचीलेपन से । उस संविधान की मूल आत्मा की रक्षा भी हो और प्रगति का क्रम भी नहीं टूटे। यही व्यवस्था चाहे अलिखित और अन्तर्भावना पर आधारित हो, पर धार्मिक क्षेत्र में भी होती है। व्यवस्था सुचारू रहे तो स्वार्थी जड़ें नहीं पकड़ पाएंगे और सार्वजनिक हित को क्षति भी नहीं पहुंचेगी। व्यवस्था का एक प्रकार का नियंत्रण होता है जो व्यक्ति संगठन या समाज को पतन के मार्ग पर जाने से रोकता है।
चरित्रहीनता का क्रम एक बार जब चल पड़ता है तो यह अनुमान लगाना कठिन हो जाता है कि वह कहां तक चलता रहेगा? ऐसा ही पतन हमारे इसी धार्मिक कहलाने वाले देश में हो रहा है। व्यक्ति और राष्ट्र का चरित्र जब स्वार्थ की फिसलन पर रपटने लगा तो धन व सत्ता पाने के स्वार्थ विशालकाय होते रहे तथा इनके लालच में धन ने रपटाया, फिर बाहुबल (गुंडा-माफिया की ताकत) साथ लगा और उसके बाद तो हदें ही टूट गई-तस्करों, चोरों या डाकुओं ने राजनीति में मदद देना बंद करके स्वयं राजनीति और सत्ता में प्रवेश कर लिया। बताया जाता है कि आपराधिक रिकार्ड वाले चुनिन्दा सांसदों या विधायकों की संख्या सिर्फ अंगुलियों पर गिनने लायक ही नहीं, सैंकड़ों में हैं। सोचिये कि कानून तोड़ने वाले ही जब कानून बनाने वाले बन जाएंगे तब मानवता, नीति या संस्कृति
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