Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
उत्साह जागता है कि दुर्दशा की मां चरित्रहीनता के उन्मूलन के लिए वह सब कुछ किया जाना चाहिए जो व्यक्ति और समाज के वश में हो। प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) में एक करोड़ लोग मारे गए तो द्वितीय विश्व युद्ध (1944-46) ने पांच करोड़ लोगों की जान ली। एक स्विस वैज्ञानिक जे. जे. पाबेल के अनुसार पिछले 5500 वर्षों में यानी अब तक दुनिया में छोटे बड़े 14500 युद्ध हुए हैं। और इनमें करीब 364 करोड़ लोग काल के गाल में समाए । इसका अर्थ है कि सातवें दशक में जितनी आबादी दुनिया की थी, लगभग इतनी ही आबादी युद्धों में स्वाहा हो चुकी है। हिंसा के अर्थशास्त्र का अनुमान भी लगा है कि आज विश्व में प्रति मिनिट दस लाख अमेरिकी डॉलर के हिसाब स खर्च हो रहा है। एक सर्वेक्षण यह भी है कि अगले 25 वर्षों में, अगर शस्त्रास्त्रों की होड़ नहीं रोकी गई तो इस पर 30 अरब डॉलर खर्च हो जायेंगे। यह धनराशि उस सम्पत्ति के कुल मूल्य के बराबर है जिसे आज तक मनुष्य ने संसार में अपने श्रम से अर्जित की है। हिंसा के इस व्यापार के सामने इस त्रासदी पर कम ध्यान है कि आज दुनिया की कुल छह अरब की आबादी में से करीब दो अरब लोग गरीबी की रेखा से नीचे अपनी जिन्दगी को घसीट रहे हैं। ध्यान है तो यह कि बड़े देश अरबों-खरबों के हथियारों का उत्पादन कर रहे हैं और भारत जैसे विकासशील देश भी हथियार खरीद कर आग में घी डाल रहे हैं। प्रतिवर्ष विकासशील देश ही 40 अरब डॉलर के हथियार खरीदते हैं।
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मानव समाज और सभ्यता को आज हिंसा का सबसे बड़ा खतरा है। इसके अलावा मोटे तीन और खतरें हैं- पश्चिम के विकसित देशों का 'नव-साम्राज्यवाद, नस्लवाद और धार्मिक कट्टरवाद' । सोवियत संघ के विघटन के बाद अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में बढ़ता अमेरीका का अनुचित हस्तक्षेप तथा धर्म-मजहब के नाम पर देशों का ध्रुवीकरण इस बात के संकेत हैं कि हिंसा का तांडव अब भी सबके सिरों पर लटकती नंगी तलवार है। राज्यों और देशों की सरकारों का कामकाज इस दिखावे पर चलता है कि उनकी लोक-कल्याण की अवधारणा है किन्तु असल में उसका तरीका अधिनायकवादी होता जाता रहा है। इस समूची दुर्दशा के कारण के बारे में गहराई से सोचें तो एक ही निष्कर्ष निकलता है कि हमारा आचरण ही इसके लिए दोषी है। आज जीवन मूल्य जिस गति से एक-एक करके ध्वस्त हो रहे हैं और चरित्रहीनता फैल रही है - यह गहन चिन्ता का विषय है ।
भारतीय चिन्तन एवं संस्कृति का यह निचोड़ रहा है कि जब तक लोगों को जीवन के मूलभूत तथ्यों, गुणवत्ता के मूल्यों तथा चारित्रिक गुणों से परिचित नहीं कराया जाता उन्हें इन्हें अपनाने के लिए प्रतिबद्ध नहीं बनाया जाता, तब तक न तो सामाजिक व्यवस्था सुचारू एवं प्रगतिपरक बन सकती है और न ही व्यक्ति और समाज की उन्नति सर्वहितैषिता की दिशा में आगे बढ़ सकती है। आज जनता के चरित्र, ज्ञान और समाज बोध को नये सिरे से जगाना होगा कि वह उन्नत जीवन मूल्यों, सिद्धान्तों तथा आदर्शों को समझें, उन पर चलने का संकल्प लें तथा चरित्र सम्पन्नता के प्रधान साध्य को प्राणपण से प्राप्त करने के लिए कटिबद्ध हो जाएं। यदि आज के दौर में व्यक्ति और समाज मिल कर यह सब नहीं किया तो आने वाला काम और आने वाली पीढ़ियां हमें कदापि क्षमा नहीं करेगी।