Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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संकल्पित, समर्पित व सर्वस्व सौंपने की तत्परता ही युवा की पहचान
लिए सुखद आवास बन सके? अमेरीकी राष्ट्रपति फैंकलिन डी. रूजवेल्ट ने एक स्थान पर कहा है'हम चार मुख्य मानवीय स्वतंत्रताओं से सम्पन्न भावी विश्व की ओर आशाभरी नजरों से देखते हैं-1. भाषण एवं विचार प्रकाशन की स्वतंत्रता विश्व में प्रत्येक स्थान पर हो, 2. इसी प्रकार अपनी-अपनी विधि से अपने-अपने धर्म की उपासना की स्वतंत्रता, 3. किसी भी प्रकार की आवश्यकतापूर्ति की स्वतंत्रता अर्थात् आवश्यक वस्तुओं का अभाव किसी को ही कहीं पर न हो, 4. भय मोचन की स्वतंत्रता यानी कि विश्व में कहीं भी कोई किसी भी प्रकार के भय से त्रस्त न रहे।' ये चार मौलिक स्वतंत्रताएं उन्होंने बताई और आशा जताई कि विश्व अवश्यमेव एक दिन इन स्वतंत्रताओं से सम्पन्न बनेगा।
चरित्र निर्माण और विकास की दृष्टि से विचार किया जाए तो क्या ये चार मूल स्वतंत्रताएं इसका भी साध्य क्यों न बने? यह विश्व एकता के सूत्र में बंधे और पूरी मानव जाति परस्पर सहायक बने तो विचार प्रकाशन, उपासना, अभावपूर्ति एवं भयमुक्ति की स्वतंत्रताएं अवश्य ही ऐसे वातावरण की रचना कर सकेगी जिसमें एक ओर भौतिकता एवं आध्यात्मिक की सशक्त पूरकता स्पष्ट बनेगी तो दूसरी ओर व्यक्ति से विश्व तक का स्तर आपस में जुड़ कर प्रगति को स्थिरता एवं निरन्तरता प्रदान करेगा। वह स्थिति अवश्य ही मानव चरित्र के लिए चारित्रिक गणों से सम्पन्नता की अवस्था बन सकेगी जब सच्चा मानव धर्म फलीभूत होगा एवं मानवीय मूल्यों की व्यवहारपरक गुणवत्ता प्रस्थापित बनेगी। मानवीय अधिकारों का समर्थन करते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ के वर्तमान महासचिव कोफी अन्नान कहते हैं-मानवीय अधिकारों की शिक्षा इतनी महत्त्वपूर्ण क्यों है? क्योंकि यूनेस्को के संविधान में अंकित है-'चूंकि युद्ध पहले मनुष्यों के मस्तिष्क में उपजते हैं, इस कारण मनुष्यों के मस्तिष्क में ही पहले शान्ति की रक्षा-पंक्ति निर्मित की जानी चाहिए'-इस दृष्टि से जितनी अधिक संख्या में मानव समुदाय अपने अधिकारों का ज्ञान करेगा, उतना ही ज्यादा दूसरों के अधिकारों तथा हितों का सम्मान बढ़ेगा, जिससे अच्छे अवसर पैदा हो सकेंगे कि पूरी मानव जाति शान्तिपूर्वक रीति से एक साथ रहे। मानवाधिकारों की शिक्षा से ही लोगों का मानस बनेगा और वे अधिकारों का कहीं भी उल्लंघन नहीं होने देंगे, फलस्वरूप युद्ध तो दूर, कहीं छोटे मोटे संघर्ष भी नहीं होंगे। 'वसुधैव कुटुम्बकम्' अथवा विश्वात्मवाद का यही तो साध्य है और यही चरित्र विकास का भी साध्य है, जो छोटे स्तर से शुरू होकर भी इस आदर्श को अपने समक्ष रखकर सकारात्मक रीति से कार्य करेगा। . जीवन के ऐसे प्रयासों को सार्थक कहा जा सकता है, क्योंकि एकता तथा सहयोगिता से प्रतिबद्ध मानव जाति अवश्य ही मानव धर्म का अन्त:करण पूर्वक पालन करेगी तथा अपने मूल्यों की प्राणपण से रक्षा भी करेगी। इस साध्य को हस्तगत करने की दिशा में आगे बढ़ने के साथ ही वर्तमान जीवन की जटिलताओं को समझ लेना चाहिए। ये सारी जटिलताएं मानव-व्यवहार की ही उपज हैं तो मानव इनका परिहार भी सार्थक व्यवहार से ही कर सकता है। सवाल है कि इन जटिलताओं को कैसे जानें
और कैसे अपने प्रयासों को सार्थक बनावें? आज की हमारी खोखली शिक्षा प्रणाली यह सब कुछ नागरिकों को नहीं सिखाती, न ही विभिन्न धर्म-मजहब इनसे संघर्ष करने की सही सीख देते हैं। मनुष्य के मन में जीवन के सार्थक प्रयासों की प्रेरणा जगावे-ऐसा कोई सशक्त साधन दृष्टि में नहीं हैं। विडम्बना तो यह है कि विपरीत स्थिति बनी हुई और शिक्षा प्रणाली हो या धर्मोपदेश-मनुष्य के
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