Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
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मनुष्य जाति एक है, उसे खण्ड-खण्ड से अखण्ड बनावें : ___महापुरुषों का सत्य वचन है कि समस्त मनुष्य जाति एक है (एगा मणुस्स जाई)। इसका क्या अभिप्राय है? जाति के नाम पर आज की खंडित जातियों का उल्लेख नहीं है, बल्कि पांच पूर्ण जातियों का उल्लेख है-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय। एक से लेकर पांच इन्द्रियों वाले प्राणियों की ये पांच जातियां हैं और मनुष्य पंचेन्द्रिय प्राणी होता है। यह उसकी पहिचान है। प्रकृति से या कर्मकृत नियति से जब पूरी मनुष्य जाति को इन्द्रियगत पहिचान ही मिली है तो स्वयं मनुष्य ने ही अपनी पहिचान को खंडित क्यों कर दी? आज मनुष्य की पहिचान के हजारों नाम गढ़ दिये गये हैं। वह देश, भाषा, धर्म, वर्ण, जाति, वर्ग, दल आदि अगणित टुकड़ों में खंड-खंड बना दी गई है। जहां तक किसी को व्यक्तिगत रूप से पहिचानने का सवाल था, उसका नामकरण कर दिया गया सो ठीक है। कौन किसको कैसे बुलावे, इस समस्या का हल हो गया। आदिमकाल का विवरण बताता है कि सब प्रकृतिदत्त आहार पर निर्भर रहते थे-फल-फूलों की विपुलता थी। तब
आहार का कोई संघर्ष नहीं था और विचार का उत्कर्ष नहीं था। एकता भी परोक्ष थी और वह निराबाध चली।
परन्तु परिस्थितियां बदली, समय की धारा परिवर्तित हुई। बिना श्रम के प्रकृति को आहार सुलभ कराना स्वीकार नहीं रहा और मनुष्य को आहार पाने की समस्या हो गई। उसने श्रम करना शुरू किया, असि (तलवार) मसि (स्याही) और कृषि-खेती के साथ श्रमाधारित जीवन निर्वाह का प्रारम्भ हुआ। मनुष्य समुदाय शक्ति, योग्यता, कौशल और श्रम के घेरों में विभाजित होने लगा। समुचित सामाजिक व्यवस्था की समस्या आई कि कौन क्या कार्य अपने हाथ में ले ताकि निर्वाह हेतु उत्पादन, सुविधा हेतु व्यापार तो जीवन श्रेष्ठता हेतु कर्तव्य पालन के कार्य सुचारू रूप से संगठित हो जाए। जो जिस कार्य के लिए सक्षम माना गया वह उस कार्य दल में शामिल कर लिया गया और कार्य स्थिरता की दृष्टि से वर्ण व्यवस्था का सूत्रपात हो गया-रक्षा करे तलवार के बल पर सो क्षत्रिय, सुविधा के लिए व्यापार को नैतिक कौशल से चलाये सो महाजन, सबको श्रेष्ठ जीवन निर्माण के लिए नीति और कर्तव्यों की शिक्षा दे सो ब्राह्मण और चूंकि शेष जो किसी सशक्त विद्या या विद्या के धनी नहीं थे, उन्हें खेती और मजदूरी के वर्ष में शामिल कर दिया गया शूद्र के नाम से। यों चार वर्ण बन गए। एक से चार टुकड़ों में बांट दी गई मनुष्य जाति। तब मनुष्य वर्ण बन गया। वर्ण व्यवस्था से सामाजिक व्यवस्था सुगठित हुई प्रारम्भ में-इस तथ्य से इस विभाजन के औचित्य को भी स्वीकार कर लें।
दुःखद स्थिति तो यही है कि एक बार विभाजन का जो चक्र चला, वह निरन्तर चलता रहा और अब भी चल रहा है-यह कहा जा सकता है। आज मनुष्य को इतना खंड-खंड कर दिया गया है कि उसके कितने टुकड़े हैं, कहां-कहां गिरे हैं और उनमें मनुष्यत्व का कितना अंश शेष है-यह सब गंभीर शोध का विषय बन गया है। अब तो एक शिशु ने जन्म लिया, उसका नामकरण हुआ तब उसके नाम के साथ परिवार का गौत्र लगा, जाति लगी, धर्म सम्प्रदाय लगी, बोली-भाषा लगी, प्रदेश और देश लगा। बड़ा हुआ तो पाठशाला की किस्म लगी, राजनीति की पार्टी लगी और भांति-भांति के अनेकों ठप्पे लगे। मनुष्य जाति बंटी, लेकिन एक मनुष्य तक कई हैसियतों में बंट गया। जहां तक
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