Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
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सम्पत्ति व सत्ता का संचय तथा स्वामित्व का विचार अमान्य है। जीवन में मानवीय कर्त्तव्यों का निर्वाह अपनी श्रेष्ठतम योग्यता के अनुसार होना चाहिए, किन्तु उसके बदले में किसी प्रकार की सामाजिक प्रतिष्ठा की कामना नहीं होनी चाहिए। समानता का प्रभाव जाति व्यवस्था पर यह हो कि जाति के आधार पर कहीं भी किसी प्रकार का भेदभाव न किया जाए। लैंगिक समानता के अनुसार स्त्री एवं पुरुष के समस्त अधिकारों में भी समानता होनी चाहिए। ये मूल्य लोकतंत्र को भी सुशोभित करते हैं तो धर्म को भी ।
लोकतंत्र की तीसरी विशेषता है कि प्रत्येक जीवन के सम्मान एवं दूसरों के अधिकारों की रक्षा करने में अटल विश्वास रखा जाए। इस दृष्टि से महावीर का अनेकान्तवाद का सिद्धान्त संसार के सारे सिद्धान्तों में अद्वितीय है कि अपने विचारों तक को दूसरों पर न थोपें । इससे बढ़ कर धर्म और अहिंसा का अभय क्या होगा? पहलुओं का दृष्टा हो सकता है, अतः कोई भी यह दावा नहीं कर सकता है कि वही सही है या यह आरोप भी नहीं लगा या सकता कि दूसरा गलत ही है। कोई पहलू के अनुसार सही हो सकता है तो दूसरे पहलू के अनुसार गलत। हाथी और अंधों की कहानी मशहूर है। सभी पहलुओं को जोड़ने से ही हाथी बनता है और अगर एकान्त रूप से एक पहलू को ही पूरा हाथी कहेंगे तो वह आंशिक सत्य भी असत्य बन जाएगा। कहने का अर्थ यह है कि किसी अपने विचार थोपो मत, बल्कि प्रत्येक विचार का आदर करो, उसे समझो - परखो और सत्यांश को मानो। इस प्रकार प्रत्येक विचारक अपने विचार के सत्यांश की स्वीकृति के साथ अन्य के विचारों के साथ सहमति स्थापित कर सकेगा। इससे बढ़कर सत्य - शोधन एवं विचार - समन्वय का अन्य मार्ग नहीं हो सकता है। विचार समन्वय और सहमति के बिना न धर्म चलता है और न ही लोकतंत्र । सबको साथ लेकर चलना है तो अनेकान्तवादी प्रणाली ही सफलता दिला सकती है। कारण, यह सहिष्णु प्रणाली है।
लोकतंत्र के ये आधारगत सिद्धान्त हैं और इन सिद्धान्तों का मानव धर्म के साथ कहीं कोई टकराव नहीं है, बल्कि जैन धर्म के तो ये प्रयोग किए हुए गणतंत्रीय सिद्धान्त हैं, जिनका प्रतिपादन स्वयं महावीर ने किया था। धर्म और लोकतंत्र की केन्द्र बिन्दु होगी अहिंसा, जो दोनों को मौलिकता प्रदान करती है। अहिंसा एक सिद्धान्त ही नहीं, अपितु पूरी जीवनशैली है, जो सह-अस्तित्व को साकार बनाती है। इस प्रकार यदि धर्म, अहिंसा तथा लोकतंत्र का सार्थक सम्मिश्रण किया जाए तो वह एक आदर्श भावी जीवनशैली का स्थान ले सकता है।
'स्व' के अनुसंधान से उभरेगा लालिमायुक्त चारित्रिक नवोदय :
धर्म, अहिंसा तथा लोकतंत्र पर आधारित जीवनशैली भी तभी सफल हो सकती है जब उसके साथ स्वानुभूति का संयोग हो । ऐच्छिकता मूल में हो तो वैसा नियंत्रण सदैव क्रियाशील रहता है। स्वेच्छा का संचालन सतत गतिमय भी बना रहता है। धर्म, अहिंसा और लोकतंत्र तीनों की शक्ति स्वेच्छा पर ही प्रभावपूर्ण बनी रहती है। स्वेच्छा का अर्थ है अपनी इच्छा और अपनी इच्छाओं के सही निर्धारण के लिए 'स्व' को समझना और प्रतिक्षण महसूस करते रहना जरूरी है । स्व का संयोग जीवनशैली के साथ न मिले तो उसका भावनात्मक आधार टूट जाएगा और कोरी जड़ मशीनवत्