Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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धनबल, बाहुबल व सत्ता की ताकत का सदुपयोग चरित्रवान ही करेगा
फैलाव हुआ कि राजनीति सत्ता के गलियारों से उठकर सब क्षेत्रों पर हावी हो गई। जनता के चुने हुए प्रतिनिधि सत्ता की कुर्सियों पर बैठकर इस कोशिश में जुट गए कि सत्ता के दुरूपयोग से ज्यादा से ज्यादा धन इकट्ठा किया जाए ताकि अगले चुनाव में वोट खरीदे जाए किसी भी कीमत पर और किसी भी उपाय से ताकि फिर से सत्ता की कुर्सियों पर कब्जा हो जाए। इस प्रकार धन से सत्ता और सत्ता से धन के दुष्चक्र को राजनीति के हर खिलाड़ी ने अपना लिया। देश का प्रत्येक नागरिक भी इस दुष्चक्र से अछूता न रह सका। सब धन की लालसा के रंग में अपने आपको रंगते चले गये - चाहे हकीकत में धन मिले या न मिले लालसा और आसक्ति ने सबको दबोच लिया। आज इसी लालसा का फल है कि राजनीति में धन बल के बाद बाहुबल भी चला और बाद में कई बाहुबलियों ने ही राजनीति में प्रवेश पा लिया, जिसके कारण राजनीति का अपराधीकरण होता गया है। राजनीति के अपराधीकरण का सीधा सादा अर्थ है अपराधियों का राज और अपराधियों के वर्चस्व पर चलने वाले राज्य में चरित्रशीलता की कैसी और कितनी दुर्गति हो सकती है, वह आज सबके सामने है। प्राचीन सांस्कृतिक एवं सामाजिक परम्पराओं की श्रेष्ठता आज समाप्त प्रायः है। नैतिकता तो दिखावे तक के लिए भी नहीं बची है - पहले कुछ शर्म-लिहाज के कारण रिश्वत का धन मेज के नीचे से छिपा कर लिया जाता था, अब मेज पर खुले आम सौदेबाजी होती है और रिश्वत दी- ली जाती है। राष्ट्र प्रेम की दुरावस्था तो दयनीय है। सच तो यह है कि राष्ट्रीयता का भाव ही गायब है, फिर कैसा राष्ट्र, किसका राष्ट्र ? धन मात्र हरेक का है। राष्ट्र किसी का नहीं। धन कमाने की पागल होड़ में संबंधों का संकट भी गहराया है। धन के सामने रक्त संबंध भी फीके पड़ गए हैं और आपसी सहयोग नाम मात्र का बचा है और तो और संयुक्त परिवारों का सफाया होता जा रहा है। शादी हुई और एकल परिवार की शुरूआत हो जाती है जिससे वृद्ध जनों का मान-सम्मान, निर्वाह और संरक्षण सब कुछ खतरे में पड़ गया है। सामाजिकता धन की इस लालसा में छिन्न-भिन्न होती हुई दिखाई दे रही है। ऐसे में धर्म का क्षेत्र अछूता कैसे रह सकता था? यहां भी यश लालसा और नामवरी की यक्षिणी सिर माथे पर बैठ रही है और आडम्बर व प्रदर्शन इस कदर बढ़े हैं कि धन ने धर्म के क्षेत्र में भी ऊंचाई पर अपना आसन जमा लिया है। संक्षेप में कहें तो यह है कि व्यक्ति और समाज की अधिकांश अच्छाइयाँ इस धन की अंधी लालसा की भेंट चढ़ चुकी हैं।
धन की प्रमुखता का सर्वाधिक घातक प्रहार हुआ है मनुष्य की आन्तरिकता पर, उसकी धर्म भावनाओं पर, उसकी मानवीय संवेदनाओं पर । आज मनुष्य पत्थर दिल होता जा रहा है-उसे अपना ही स्वार्थ दिखता है, दूसरों का दुःख उसकी नजरों से ओझल है- दया करुणा उसे झकझोरती नहीं है। इस बदहाली की बुनियादी वजह यही है कि धन को माथे पर बिठा दिया गया है जबकि उसकी सही जगह पैरों में जूते के समान है। सादगी और नीति से जीवनयापन चले यानी धन पैरों में जूते का काम करे, लेकिन अगर जूते को पगड़ी की जगह सिर पर बांध दिया जाए तो उसे निरा पागलपन ही तो माना जाएगा। आज ऐसे पागलपन से अधिकांश लोग ग्रस्त हैं और ऐसे में सब ओर चरित्र को विकसित किए जाने के सिवाय अन्य कोई कारगर उपाय नहीं है। स्वस्थ चरित्र का निर्माण और उसका सतत विकास आज की ऐसी चरित्रहीनता की ज्वलन्त मांग है।
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