Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता की चरित्रगत विशेषताएं :
भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता का स्वरूप ढला है भारतीय चरित्र के अनुरूप-जिसका प्रधान गुण रहा है समन्वय बुद्धि और सामंजस्य का दृष्टिकोण । अन्य गुण हैं-स्नेह, सहानुभूति, सहयोग, सहकार तथा सह-अस्तित्व। इस गुणमूलक संस्कृति का लक्ष्य है- असद् से सद् की ओर, अंधकार से प्रकार की ओर, अनृत से सत्य की ओर, मृत्यु से अमरत्व की ओर, भेद से अभेद की ओर तथा सान्त से अनन्त की ओर गति करना। सत्य, शिव और सुन्दर-इसका रूप-स्वरूप है। इस संस्कृति का मूल स्वरूप है-'दयतां, दीयतां, दाम्यताम्' अर्थात् दया, दान और संयम-दस प्राणों में से प्रत्येक प्राण के प्रति मनसा वाचा कर्मणा दया करो, मुक्त भाव से अपितु समर्पित भाव से दान करो एवं अपने मन के विकारों का दमन करो, उन्हें सद्वृत्तियों से संस्कारित एवं संयमित बनाओ। ___ जैसी यह मूल स्रोत की त्रिधारा है, उसी प्रकार भारतीय संस्कृति का प्रवाह भी त्रिवेणी रूप है। वेदों, आगमों और पिटकों में इस त्रिवेणी के दर्शन होते हैं। क्रूरता से मनुष्य को सुख नहीं मिला, तब हृदय में दया का प्रवेश हुआ, अपार संग्रह करते हुए भी जब मनुष्य को शान्ति प्राप्त नहीं हुई तब दान से-देने के त्याग से उसने शान्ति का अनुभव किया। भोग के सर्वसाधन सुलभ होने और भोग भोगने के बाद भी जब मनुष्य को आनन्द नहीं मिला तो उसने उस आनन्द की इन्द्रिय दमन, आत्मानुशासन एवं संयम में खोज शुरू की और उसने आनन्दानुभूति पाई। इस प्रकार मानव-चरित्र में एक शुभ एवं सुखद परिवर्तन आया और इस परिवर्तन का सुप्रभाव समग्र समाज में भी फैला। विविधताओं के उपरान्त भी वैदिक संस्कृति, जैन संस्कृति एवं बौद्ध संस्कृति की त्रिवेणी में एकता के तत्त्व अधिक हैं जिसके कारण एक समन्वित सांस्कृतिक धारा ने भारतीय चरित्र में ऐसे अद्भुत परिवर्तन किये जो विशिष्ट व्यक्तियों के उद्भव के रूप में एक ओर तो दूसरी ओर सामूहिक आध्यात्मिक उन्नति के रूप में विश्व विख्यात हो गए।
भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता का मूल स्वरूप गुणमूलक चरित्र से प्रेरित रहा है, किन्तु उसका क्षेत्र केवल वैयक्तिक कभी नहीं रहा। यह सदा जन-जन की प्रेरणा स्रोत रही, फलस्वरूप इसका मूल स्वरूप सामूहिक या सामाजिक ही अधिक रहा। इतिहास की गति के साथ इसका विकास भी मंथर गति से हुआ और इस वजह से उसमें सुघड़ता और स्थिरता भी पूरी रही। हड़प्पा और मोहनजोदड़ों से जिस संस्कृति तथा सभ्यता का श्रीगणेश हुआ वह निरन्तर विकसित एवं प्रतिफलित होती रही। हमारी राष्ट्रीय संस्कृति ने धीरे-धीरे बढ़ कर अपना वर्तमान आकार ग्रहण किया है जिसमें द्रविड़ों, आर्यों, शक एवं हूणों तथा मुसलमानों और ईसाइयों का योगदान भी सम्मिलित है। इससे सिद्ध हो जाता है कि अपनी चरित्रगत विशेषताओं के कारण भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता में प्राचीनकाल से समन्वय करने तथा उपकरणों को पचा कर आत्मसात् करने की अपार क्षमता रही हुई है। सच तो यह है कि जब तक इसमें क्षमता का गुण शेष रहेगा तब तक इसका दीर्घ जीवन किसी भी कारण से समाप्त नहीं हो सकता है। आज हम जिसे भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता कहते और मानते हैं, वह किसी एक काल, एक जाति अथवा एक वर्ग की रचना नहीं है। अनेक जातियों की समन्वित रचना है जिसने काल को भी अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया है। आज के नवीन विश्व को यदि भारत से
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