Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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धर्म और विज्ञान का सामंजस्य निखारेगा मानव चरित्र का स्वरूप
गहरा अध्ययन किया जाए तथा वर्तमान डिजीटल टेक्नोलॉजी की सहायता से नई विधियां निकाली तो आधुनिक विज्ञान को प्रगति की नई दिशा मिल सकती है।
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अब धर्म फिर से विज्ञान होने लगा है और विज्ञान धर्म की ओर बढ़ने लगा है :
प्रारम्भ में धर्म विज्ञान था, किन्तु बाद में धर्म ने अपने और विज्ञान के बीच मोटी दीवार खड़ी कर ली। सदियों बाद वह दीवार अब टूट रही है और धर्म पुनः विज्ञानमय होने लगा है। चरित्र निर्माण एवं विकास की प्रक्रिया सम्यक् रूप से चल सके इस उद्देश्य पूर्ति के लिए अब धर्म को पूरी तरह विज्ञान की पांत में बिठाने का कार्य जरूरी है क्योंकि दोनों शक्तियों के समन्वित प्रयास से ही लोककल्याण को व्यापक स्वरूप दिया जा सकेगा । दार्शनिकों एवं वैज्ञानिकों दोनों का प्रारंभिक लक्ष्य संसार के अज्ञात गूढ़ रहस्यों को जानने का ही था, ताकि उनके उद्घाटन से इस संसार में जीवन को श्रेष्ठतर बनाया जा सके। तब दोनों के बीच कोई प्रतिरोध नहीं था एवं उनके चिन्तन तथा अध्ययन की परस्पर कोई सीमा रेखा भी नहीं थी। यह सत्य जैन विज्ञान ग्रन्थों से प्रमाणित होता है ।
किन्तु बाद में जाकर दोनों की कार्य प्रणाली में विशेष समस्या उत्पन्न हुई। दर्शन शास्त्र में 'क्यों' का संकेत बड़ा बना तो विज्ञान का लक्ष्य 'कैसे' तक सीमित हो गया। 'क्यों' का समाधान पाने में दार्शनिक चिन्तन से आगे बढ़ कर कल्पना की उड़ानें भी भरने लगा, जबकि वैज्ञानिक ने लक्ष्मण रेखा खींच दी कि 'कैसे' का तथ्यात्मक एवं प्रयोगात्मक समाधान पाकर ही आगे बढ़ा जाए और किसी भी प्राप्त समाधान को अंतिम न माना जाए, शोध एवं प्रयोग का क्रम चलता रहे। उसके बाद दर्शन की नकेल धर्म ने पकड़ ली और विज्ञान अकेला चल पड़ा, क्योंकि धर्म उसके प्रति उग्र बन गया। जो तथ्य आत्मानुभव से प्रमाणित नहीं किए जा सकते हों, उन्हें विज्ञान ने स्वीकार नहीं किया, जबकि धर्म तथ्यों को बिना किसी प्रमाण के भी स्वीकार कर लेता था उन्हें ईश्वरीय अनुभूति, महाज्ञानियों के वचन, पैगम्बर के पैगाम आदि के नाम देकर प्रत्यक्ष प्रमाणीकरण का मुद्दा ही धर्म और विज्ञान के बीच भेद का प्रधान कारण बन गया ।
विज्ञान की विधि आनुभाविक अथवा प्रयोगाश्रित होती है और इसमें नये अनुभव के बाद पुराने निष्कर्षों में सहजता से, बल्कि अनिवार्य रूप से परिवर्तन लाया जाता है। इसके विपरीत धर्म की विधि पूर्वाग्रहों के साथ ही चलती है एवं जो स्थगन प्रिय होती है - मूलतः वह परिवर्तन की विरोधी ही होती है। विज्ञान के लिए सभी निर्णय अस्थायी होते हैं, क्योंकि नवीन ज्ञान के प्रकाश में उन्हें पुनः शोध एवं संशोधन योग्य मान लिया जाता है। धर्म में ऐसा कदापि नहीं होता उसकी सीमा पूर्व निर्धारित, कठोर एवं अपरिवर्तनीय होती है, बल्कि शास्त्र वचन तो लोहे की लकीर माने जाते हैं। धर्म प्रणाली इस प्रकार एकाधिकारवादी हो जाती है और यही विभिन्न धर्म प्रणालियों के बीच विवाद एवं संघर्ष का हेतु बन जाता है । मतवादी हठाग्रहों के कारण ही धर्म में रूढ़ता व जटिलता समाती गई ।
वैसे मानव धर्म के रूप में धर्म का स्वरूप दर्शन से भिन्न नहीं हो सकता एवं दर्शन तथा विज्ञान के अंतिम उद्देश्यों में भी कोई मतभेद नहीं। संसार के रहस्यों की गूढ़ता में दोनों ही प्रवेश करते हैं और अपने श्रम के सुफल को संसार के सुख का वाहक बनाते हैं। सच पूछे तो धर्म का उद्देश्य चिन्तन,
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