Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
View full book text
________________
सुचरित्रम्
348
का मूलमंत्र यह हो कि व्यक्तिगत एवं सामाजिक चरित्र का श्रेष्ठतम विकास हो सके। क्षमता विकास का गुर है कि समाज को सदा आदर्शोन्मुख रखो :
जब उत्तम शिक्षा हो, उत्तम संस्कार हो तो क्षमता उत्तम बने उसमें कोई सन्देह नहीं । फिर भी उसके लिए प्रयत्न तो अपेक्षित रहते ही हैं। व्यक्ति के चरित्र विकास के साथ सामाजिक चरित्र भी एक स्तर तक उन्नत होना चाहिए जिससे चारित्रिक गुणों के विस्तार का सुन्दर वातावरण बन सके । विकास के दो प्रमुख तत्त्व होते हैं - आदर्श और यथार्थ । इन तत्त्वों की जानकारी कोई कठिन नहीं, हर कोई इन्हें आसानी से समझ सकता है। छात्र किसी परीक्षा के पहले यह धारणा बनाकर मेहनत से पढ़ाई करते हैं कि उन्हें अमुक प्रतिशत अंक अवश्य प्राप्त करने हैं। समझें, कोई छात्र निश्चित करता है कि उसे नब्बे प्रतिशत अंक लाने हैं तो वह उस लक्ष्य को सामने रखकर पढ़ता है । परन्तु यह निश्चित नहीं होता कि वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर ही ले। फिर भी प्रयास उस लक्ष्य का करने से वह लक्ष्य से बहुत पीछे तो नहीं ही रहेगा। इसका अर्थ यह है कि हमारा लक्ष्य आदर्श की ऊंचाई की ओर होगा तो उसके पीछे यथार्थ भी अवश्य उन्नति करेगा। जीवन विकास में भी इन दोनों तत्त्वों की आवश्यकता रहती है जो समाज व राष्ट्र के विकास के लिये भी जरूरी है। हम अपनी संस्कृति, सभ्यता या विचारधारा के माध्यम से अपने आदर्शों से परिचित होते हैं, अतः आसानी से अपना लक्ष्य निर्धारित कर सकते हैं। यों लक्ष्य काल्पनिक नहीं, व्यावहारिक होना चाहिये, फिर भी लक्ष्य प्राप्ति आसान नहीं होगी। अपने प्रयास में प्रकाश स्तंभ के समान लक्ष्य चमकता रहे और हम उसमें अपने निर्धारित पथ पर चलते रहे तब भी हमारी क्षमता ऊर्जा से भरी रहेगी। आदर्शों की प्रेरणा से उमंग, गति और कार्यशक्ति बढ़ती जाती है। अब यथार्थ की बात करे । यथार्थ अथवा आज की हकीकत | किसी भी विकास की प्रक्रिया हो, यथार्थ का आकलन ही स्पष्ट करता है कि हम सामान्य प्रगति से भी कितने पीछे हैं या क्या करने से कहां तक अग्रसर हो सकेंगे। इसी आधार पर व्यक्ति की नहीं, समाज या राष्ट्र की योजनाएं भी निश्चित की जाती है। यथार्थ का निरन्तर आकलन हमारी क्षमता का थर्मामीटर होता है।
कहने का तात्पर्य यही है कि इसी रीति-नीति से यदि सदा समाज को आदर्शोन्मुख बनाए रखे तो सामान्य जन भी उन आदर्शों के प्रकाश में प्रगति की गति को संतुलित बनाए रख सकते हैं। क्षमता के सतत विकास के लिए भी यह रीति नीति लाभप्रद सिद्ध होगी। दूसरे, आदर्श या लक्ष्य को सामने रखते हुए गति करने की स्थिति में अपने मार्ग से कभी भटकाव नहीं होता है तथा निरन्तर गति में तीव्रता आती रहती है । समाज, राष्ट्र या विश्व के समक्ष निर्धारित आदर्श भले असाध्य ही दिखें, फिर भी मानना चाहिए कि प्रयास की कसौटी पर कुछ भी असाध्य नहीं होता, बल्कि असाध्य के समक्ष प्रयास कई गुने कठोर हो जाते हैं। उत्साह की कोई सीमा नहीं होती और एक दिन वह अप्राप्य को भी प्राप्त कर लेता है। प्रश्न सदा मनःस्थिति का ही मुख्य रहता है और मनःस्थिति आशा व उत्साह से परिपूर्ण रहे तो आदर्श या लक्ष्य उसे कभी शिथिल नहीं होने देता है। विश्वास पूर्वक यह कह सकते हैं कि क्षमता विकास का कोई कारगर गुर है तो वह है समाज को सदा आदर्शोन्मुख रखो और व्यक्ति को उसे पा लेने की संकल्पबद्धता के साथ उत्साहित बनाते रहो ।