Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
चिपकते रहते हैं तथा तदनुसार फलाफल देते हैं। कर्म पुद्गल के सिद्धान्त के माध्यम से जैन विचारकों ने भौतिक जगत् का विस्तार से विवेचन किया है। इनके विचार के अनुसार यह जड़ (पदगल) तत्त्व अपने निश्चित प्रकार एवं परिमाण के साथ शाश्वत पदार्थ है। घनत्व में यह बढ़ता-घटता रहता है किन्तु अणु-परमाणुओं में कोई कमी-बेशी नहीं होती है। ये अणु-परमाणु विभिन्न आकारों में रूपान्तरित होते रहते हैं और स्कंध रूप भी बनते रहते हैं। परमाणु के स्वभाव का विस्तृत वर्णन पंचास्तिकाय के अन्तर्गत हुआ है तथा भगवती सूत्र में परमाणु थ्योरी (सिद्धान्त) पर पूरा विवरण दिया गया है।
'जहां तक अनेकान्तवाद की थ्योरी (सिद्धान्त) का प्रश्न है. जैन दर्शन के इस प्राचीन सिद्धान्त जैसा सिद्धान्त अन्य कोई नहीं है। जैन विचारकों ने पहचाना था कि यह संसार जैसा दिखाई देता है उससे कई गुना जटिल है और उसमें उठने वाले विभिन्न विचारों में सामंजस्य लाते रहने की आवश्यकता सदा बनी रहेगी। इसलिए उन्होंने अतिवादी और एकान्तवादी मान्यताओं को नकार दिया। अनेकान्तवाद को स्याद्वाद भी कहा जाता है जिसकी सप्तभंगी होती है अर्थात् सात नयों के द्वारा वस्तु का वर्णन किया जाता है। अस्तित्व और अनास्तित्व की दो ही नहीं, सात संभावनाएं होती हैं। नयवाद से वस्तु स्वरूप का पूर्ण परिचय होता है। विभिन्न अपेक्षाओं से पदार्थ के स्वरूप का जो अवलोकन किया जाता है, उससे इस भौतिक जगत् की संख्यात्मक जानकारी भी स्पष्ट होती है। जैन दार्शनिकों की अद्भुत दूरदृष्टि थी कि उन्होंने अतीव जटिलताओं के उपरान्त भी नक्षत्र मंडल आदि का भी निश्चित वर्णन किया है, जिससे उनके गणितीय, ज्योतिषीय एवं खगोलीय-भूगोलीय ज्ञान की विशिष्टता का भी परिचय मिलता है। जैन साधुओं ने आध्यात्मिक अभ्यास के साथ गणित में भी महत्त्वपूर्ण परम्पराएं स्थापित की।
वैज्ञानिक विषयों की चर्चा करने वाले प्रख्यात जैन ग्रन्थ हैं-गणित सार संग्रह, तत्त्व स्थानाधिगम सूत्र, स्थानांग सूत्र, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, अनुयोगद्वार सूत्र, क्षेत्र समास, त्रिलोक सार, भगवती सूत्र आदि। गणित सार संग्रह के रचयिता मुनि महावीराचार्य बहुत बड़े गणितज्ञ थे। राजा राष्ट्रकूट अमोघवर्ष नृपतुंग (815-878 ई.पू.) की राज्य सभा में गणितज्ञ के रूप में उनका अत्यधिक सम्मान था। सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के समान राष्ट्रकूट राजा ने भी राज्य का परित्याग करके जैन साधुता स्वीकार की थी। ग्रंथ गणितसार संग्रह में एरिथमेटिक, एलजेबरा और ज्योमेट्री के विषयों का समावेश है और इसमें एक कवि की कल्पना के साथ गणितज्ञ की तीव्रता का अच्छा प्रदर्शन हुआ है। विज्ञान के इतिहासज्ञों ने कई स्थलों पर उल्लेख किया है कि यह ग्रन्थ दक्षिण भारत में पाठ्य पुस्तक के रूप में पढ़ाया जाता था।
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन दार्शनिकों के लिए विज्ञान विषयों में विशेषज्ञता प्राप्त करना ही पर्याप्त नहीं थी, बल्कि आध्यात्मिक उन्नति के चरम तक पहुंचने का एक मार्ग भी था जिसके द्वारा इस संसार के भौतिक आधार को भलीभांति समझा तथा महसूस किया जाता था। विज्ञान विषयों पर विद्वता से लिखे अनेक ग्रन्थ लुप्त हो गये हैं अथवा दुर्लभ होते जा रहे हैं। इस विरासत की सावधानीपूर्वक रक्षा की जानी चाहिए क्योंकि धर्म एवं विज्ञान का सामंजस्य बिठाने में यह साहित्य अपूर्व प्रेरणा का स्रोत बन सकता है। आज यदि इस अमूल्य विरासत पर खोज हो, उन विषयों का
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