Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
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अवश्य मौजूद हैं। ऐसे कई वैज्ञानिक अनुसंधान एवं अन्वेषण है जो प्रत्यक्ष है किन्तु धार्मिक जन उन्हें स्वीकार करने के मूड में नहीं है, क्योंकि अपने धर्मशास्त्रों एवं मान्यताओं के प्रति जो दीर्घकाल से एक वैचारिक प्रतिबद्धता जमी हुई है वह उन्हें रोकती है। धार्मिक जन न तो विज्ञान की प्रत्यक्ष प्रगति का भलीभांति बौद्धिक विश्लेषण कर सकता है और न ही विश्लेषण से प्राप्त सत्य के आधार पर परम्परागत मोह को ठुकरा सकता है। वह बार-बार दुहराई गई धारणा एवं रूढ़िगत मान्यता के साथ कुछ ऐसा बंधा हुआ है कि जैसे वह बंधन को छोड़े तब भी बंधन उसे शायद नहीं छोड़ेगा। इस आग्रह की ही उसके मन में व्यग्रता है जो विज्ञान के सत्य को मानने और न मानने के बीच अड़ी हुई खड़ी है।
इस सत्य को आज समझ लेना होगा कि धर्म और विज्ञान परस्पर शत्रु कतई नहीं है, दोनों ही विज्ञान हैं - एक आत्मा का तो दूसरा प्रकृति का । मानव की मौलिकता आत्मा है तो उसका समूचा जीवन प्रकृति पर आधारित है तो वह दोनों में से एक को भी कैसे छोड़ सकता है? धर्म या अध्यात्म विज्ञान के अन्तर्गत आत्मा के शुद्धाशुद्ध स्वरूप, बंध- मोक्ष, शुभाशुभ परिणामों का उत्थान-पतन आदि आन्तरिक समस्याओं का समाधान आता है तो प्रकृति से सम्बद्ध इस भौतिक विज्ञान में मानव शरीर, इन्द्रिय, मन एवं प्रकृतिजन्य अनेक विषयों का विश्लेषण मिलता है। दोनों का ही जीवन की अखंड सत्ता के साथ गहरा जुड़ाव है। एक जीवन की अन्तरंग धारा का प्रतिनिधि है तो दूसरा उसकी बहिरंग धारा का । अध्यात्म का क्षेत्र मानव के अन्तःकरण, उसके चरित्र, इसकी चेतना एवं आत्मीयता तक फैला हुआ है तो विज्ञान का क्षेत्र प्रकृति के अणु से लेकर विराट खगोल-भूगोल आदि के प्रयोगात्म अनुसंधान एवं अन्वेषणों तक पहुंचता है। एक मानव जीवन का अन्तरंग ज्ञान है तो दूसरा जीवन के दूसरे पक्ष बहिरंग का ज्ञान है । यों धर्म और विज्ञान दोनों ज्ञान भी है और विज्ञान भी । अतः दोनों विरोधी नहीं, बल्कि एक-दूसरे के पूरक हैं। विज्ञान प्रयोग है तो अध्यात्म योग है। विज्ञान सृष्टि की अनेक चमत्कारी शक्तियों का रहस्य उद्घाटित करता है एवं प्रयोग द्वारा उन्हें हस्तगत करता है, वहां अध्यात्म उन शक्तियों का कल्याणकारी उपयोग करने की दृष्टि प्रदान करता है। मानव चरित्र को विकसित, निर्भय और निर्द्वन्द बनाने की विधि अध्यात्म के पास है कि भौतिक विज्ञान की उपलब्धियों का कब, कैसे और कितना उपयोग करना चाहिए जिससे मानव जीवन संतुलित रह सके । अध्यात्म, भौतिक प्रगति को विवेक की आंख देता है, फिर धर्म और विज्ञान को परस्पर विरोधी कैसे माना जा सकता है?
सच तो यह है कि मानव जीवन केवल अन्तर्मुखी बन कर नहीं टिक सकता तो केवल बहिर्मुखी बन कर भी नहीं चल सकता है। उसे दोनों अन्तरंग एवं बहिरंग धाराओं में बहना होता है और दोनों प्रकार के तत्त्वों का सामंजस्य बिठाना होता है। जीवन की अखंडता इसी में है कि दोनों धाराओं का सम्यक् सम्मिश्रण किया जाए तथा जीवन को सन्तुलित बनाया जाए। बहिरंग जीवन में विश्रृंखलता और विवाद पैदा न हो इसके लिए अन्तरंग नियंत्रण चाहिए और अन्तरंग जीवन भी बहिरंग के सहयोग के बिना सफल नहीं हो सकता। यों दोनों का अपना-अपना महत्त्व है तथा जीवन को दोनों की अपेक्षा रहती है। दोनों को अमुक स्थिति एवं मात्रा में लेकर ही चला जा सकता है, तभी जीवन उपयोगी, सुखी एवं सुन्दर हो सकता है।