Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
और चाहते हैं कि उनके अनुयायी इस विशिष्टता की प्राण प्रण से रक्षा करें। . ___ दूसरी ओर विज्ञान प्रत्येक वस्तुस्थिति को शंका की नजर से देखता है। उसे सर्वदा और सर्वत्र सन्देह चाहिए। विज्ञान की मांग है कि विज्ञान क्षेत्र के प्रत्येक कार्यकर्ता को प्रत्येक बात पर प्रश्न ही प्रश्न करने चाहिए। वह वर्तमान स्थिति पर प्रश्न करे, नये साक्ष्य की खोज करे और उस साक्ष्य के नये
और श्रेष्ठ विश्लेषण को तलाशे-तभी वह सच्चा वैज्ञानिक बन सकता है। विज्ञान की इस प्रक्रिया की पक्की सबूत है उसकी थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी (जो जैन दर्शन में अनेकान्तवाद, स्याद्वाद या सापेक्षवाद के नाम से हजारों वर्ष पहले से मान्य और प्रचलित है)।न्यूटन के गति नियमों से भी विश्व के रहस्यों को समझने में पर्याप्त मदद मिली है। किन्तु थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी का परिपक्व स्वरूप तभी ढल पाया, जब आइन्स्टीन ने न्यूटन की थ्योरी को गलत सिद्ध कर दिया। इसी प्रकार विज्ञान को यह जानने में भी हजारों वर्ष लग गए कि यह पृथ्वी ब्रह्माण्ड के केन्द्र में स्थित है। इसी प्रकार लम्बे अर्से तक ग्रह नक्षत्रों के सम्बन्ध में कल्पनाएं दौड़ती रही, जटिल सिद्धान्त बनते रहे और आकाश में उनकी गति के बारे में अपने-अपने मत व्यक्त किये जाते रहे लेकिन इन ग्रह नक्षत्रों का मनुष्य जाति पर क्या प्रभाव होता है-इसके बारे में कुछ खास नहीं जाना जा सका। सबसे पहले वैज्ञानिक कोपरनीकस ने प्रस्तावित किया कि यदि सूर्य को केन्द्र में रख पृथ्वी आदि सभी ग्रहों को उसकी परिक्रमा लगाते हुए माना जाय तो ग्रहों की जटिल गति को आसानी से समझा जा सकेगा। इस सारे विवरण का आशय यह है कि वैज्ञानिक प्रचलित धारणा को ध्यान में नहीं लेता है, बल्कि विज्ञान के प्रति सच्ची लगन के नाते वह सारे तथ्यों व साक्ष्यों पर विचार करता है और इस सार को प्रस्तावित करता है जिसे वह ऐसी शोधपूर्ण विचारधारा मानता है जिस पर उसने काम किया है और उसका विस्तृत विवेचन दिया है। एक सच्चा वैज्ञानिक अपनी शोध को सर्वोपरि महत्त्व देता है।
इस पर प्रश्न उठता है कि क्या सच्चे अर्थों में वैज्ञानिक रहते हुए भी धार्मिक बन पाना संभव माना जाएगा? क्या उत्तर हो सकता है इस प्रश्न का? उपरोक्त विवरण तो नकारात्मक संकेत देता है, किन्तु वास्तव में वह है नहीं। इसका उत्तर सकारात्मक है। अनेक विख्यात वैज्ञानिकों के नाम गिनाये जा सकते हैं जो गहरी धार्मिक आस्था के भी धनी रहे हैं। यह इस कारण संभव हो सका कि वे इन दोनों का सुन्दर तालमेल बिठा सके। एक ओर उन्होंने एक प्रकार से 'दोहरी सोच' (डबल थिंक) का अभ्यास किया, जिसमें प्रत्येक वस्तुस्थिति के बारे में प्रश्न करने की वैज्ञानिक वृत्ति को उन्होंने उन क्षेत्रों में लागू नहीं किया जो उनके जीवन में धार्मिक विश्वासों से सम्बन्धित थे। दूसरी ओर इस तथ्य को उन्होंन पहिचाना कि विज्ञान के पास हमेशा सभी प्रश्नों के उत्तर नहीं रहते, जैसे यह प्रश्न अक्सर करके उठा करता है कि मैं एक श्रेष्ठ पुरुष कैसे बन सकता हूं तो कहना पड़ेगा कि ऐसे प्रश्नों के विज्ञान के पास कोई उत्तर नहीं होते हैं, क्योंकि यह तो अपनी आन्तरिकता का प्रश्न है। विज्ञान के पास आन्तरिक प्रश्नों के कोई उत्तर नहीं होते हैं और ऐसे उत्तर होने का विज्ञान ने कभी दावा भी नहीं किया है।
सृष्टि का रचयिता ईश्वर है-यह नास्तिक कहे जाने वाले लोग नहीं मानते। उनका तर्क है कि पांच की बजाय आठ अंगुलियां क्यों नहीं बनाई गई आदि। वे कहते हैं-सृष्टि का रचयिता न तो कोई अलौकिक शक्ति वाला आयोजक है जो प्राकृतिक इतिहास की छोटी-छोटी बातों का समायोजन
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