Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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धर्म और विज्ञान का सामंजस्य निखारेगा मानव चरित्र का स्वरूप
के पटल पर सक्रिय रूप में दिखाई देता है, वह इन दोनों का समन्वित रूप ही तो होता है। आत्मा तत्त्व निराकार है, उसका आकार शरीर बनाता है। मानव शरीर जो दिखाई दे रहा है वह स्वयं जीव
और अजीव तत्त्वों की समन्वित श्रेष्ठ रचना है। दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि इन दोनों का जो समन्वित रूप है, वही सृष्टि का मूल है। ...धर्म और विज्ञान के बीच समन्वय की समस्या उसी अवस्था में समस्या है जबकि आत्मा संज्ञाहीन जैसी रहती है। इसलिए प्रमुख समस्या है आत्माभिमुखी वृत्ति के विकास की और जब तक ऐसा समीचीन विकास नहीं हो जाता है तब तक धर्म और विज्ञान के स्वस्थ समन्वय से आत्माभिमुखता की प्रमुख समस्या के समाधान में सहायता प्राप्त की जा सकती है। ...यह (धर्म और विज्ञान का समन्वय) आत्मा की चेतनावस्था के सन्तुलन का बिगाड़ है। कोरी भौतिक लिप्सा इसीलिए तो मनुष्य को राक्षस बना देती है। इसे वस्तुतः समन्वय का अभाव कहा जाएगा। भौतिकता तो आध्यात्मिकता की पूरक बनती है, विज्ञान की स्वस्थ सहायता से धर्म की उन्नति की जा सकती है, लेकिन शर्त यह है कि आत्मा जागृत हो-निजत्व के आधार पर खड़ी रहने की क्षमता उसमें पैदा हो जाए। इसके (समन्वय के) लिए आत्माभिमुख वृत्ति का विकास किया जाना चाहिए और जैसे शरीर को धर्म का साधन बनाया जाना चाहिए तो उसी तरह विज्ञान को भी धर्म का साधन बनाया जाना चाहिए (ग्रन्थ-अपने को समझें-प्रथम पुष्प, अध्याय 11 'धर्म और विज्ञान का समन्वय' पृष्ठ 95-101)।
सार संक्षेप यह है कि धर्म को गति चाहिए और विज्ञान को मति। मति धर्म के पास है और विज्ञान के पास गति । मति के बिना गति उदंडता की ओर जाती है तथा गति के बिना मति निष्क्रिय रहती है। अतः निस्सन्देह मति और गति को साथ जुड़ना ही होगा, यदि जीवन को सक्रिय बनाना है। मानव चरित्र का नवरूप निखरेगा इसी मति और गति की संयुक्तता से - धर्म और विज्ञान के स्थिर संयोग से।
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