Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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लक्ष्य निर्धारण शभ हो तो संकल्प सिद्धि भी शुभ
होती है तो आंखें दृश्य भले देखें-भावों में न राग आएगा और न द्वेष तथा इस प्रकार वह दृश्य आत्मशक्ति को किसी भी रूप में प्रभावित नहीं कर पाएगा। मन में यदि किसी प्रकार का दुर्विकल्प न उठे तो आंखे कुछ भी देखें, कोई हानि नहीं होगी। ऐसा ही अन्य इन्द्रियों, शरीर या मन के साथ भी समझिए। मुख्य बात यही है कि भावों में राग द्वेष की गहनता पैदा न हो। यह नहीं है तो बाहर में भी पदार्थों के लिए तृष्णा, लोभ या संग्रह का विचार नहीं रहेगा। यही कारण है कि जैन दर्शन ने सोना, चांदी आदि के स्थूल परिग्रह से पहले भाव परिग्रह मूर्छा, आसक्ति आदि को त्याज्य कहा है। भावमयता की एक-एक ईंट नींव को अहिंसा पर आधारित बना देगी :
भाव का 'भाव' न सिर्फ चारित्रिक जीवन में ऊंचा होता है, बल्कि आज के लौकिक व्यवहार और कानून के क्षेत्र तक में भी ऊंचा होता है। लोकाचार में अगर आन्तरिकता नहीं होती तो उसे कोई नहीं चाहेगा। कानून की तकनीक में भी नीयत (इंटेन्शन) का बड़ा फर्क पड़ता है। वास्तविकता यही है कि कोई भी क्रिया-चाहे वह धार्मिक ही क्यों न हो, यदि भावों पर आधारित नहीं है तो वह मृत शरीर के समान हेय ही कहलाएगी। भाव ही वह प्राण है जो किसी भी क्रिया को जीवन्त, प्रभावोत्पादक तथा प्रेरणास्पद बनाता है।
चरित्र विकास की नींव में भावमयता की पहली ईंट के बाद भावमय गुणों की जो एक-एक ईंट . विवेक एवं कर्तव्य बुद्धि के साथ रखी जाएगी तो निश्चित मानिए कि पूरी नींव अहिंसा पर आधारित बन जाएगी। अहिंसा का आधार ही चरित्रशीलता की उत्कृष्ट कोटि की रचना करेगा, पूरी जीवनशैली को अहिंसामय बनाएगा और धर्म को सद्धर्म का स्वरूप प्रदान करेगा। नींव की ये एक-एक ईंटे क्या हो सकती है-इस पर विचार करें। ___ 1. आदर्शोन्मुखता : चरित्र विकास की क्रियाशीलता में आदर्श सदा सामने रहे ताकि कभी भी मार्ग का भ्रम पैदा न हो और उन्हीं साधनों का चयन हो सके, जो साध्य तक ले जाते हों।
2. न्यायप्रियता : जीवन का कोई भी क्षेत्र हो, न्याय पर सदा नजर रहनी चाहिए। किसी के भी साथ किसी भी कारण से किसी भी प्रकार का अन्याय कदापि नहीं होना चाहिए तथा अपनी किसी स्वार्थ पूर्ति के लिए तो कतई नहीं। इतना ही नहीं, सर्वत्र न्याय रक्षा का प्रयास होना चाहिए, अपितु न्याय रक्षा के लिए सर्वस्व तक न्यौछावर कर देने की तत्परता रहनी चाहिए।
3. स्वावलम्बन : व्यक्ति के जीवन निर्वाह का प्रश्न हो अथवा परिवार, गांव आदि के संचालन का प्रश्न-स्वावलम्बन-अपना ही आश्रय सर्वोपरि माना और अमल में लाया जाना चाहिए। अपने छोटे-छोटे काम भी नौकरों या आत्मीयों से करवा कर आश्रित नहीं होना चाहिए बल्कि सर्वत्र यह आदत और प्रथा ढालनी चाहिए कि अपना काम सब खुद करें। परिवार भी स्वाश्रित होना चाहिए तो ग्राम की अर्थनीति भी स्वावलम्बी बननी चाहिए। __4. श्रम निष्ठा : कोई भी काम छोटा नहीं होता और किसी भी काम को खुद करने में शर्म महसूस नहीं होनी चाहिए। शर्म तो झूठी रईसी पर आनी चाहिए। पूर्ण श्रमिक का कार्य न हो तब भी श्रम के प्रति निष्ठा जरूरी है और प्रतिदिन कुछ न कुछ श्रम करने की आदत डालनी चाहिए।
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