Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
मिल जाता है। क्योंकि प्रायः प्रत्येक सम्प्रदाय में रूढ़ियों और बाहरी क्रियाकांडों को ही धर्म रूप में स्वीकार करने से संकीर्णता गहरी हो जाती है और वैसी संकुचितता में ही अपनी सम्प्रदाय का धर्म है, वही परिपूर्ण धर्म है-ऐसा मान लिया जाता है। यह कहा जाता है कि हमारे मत-सम्प्रदाय में आने पर ही मोक्ष लाभ हो सकता है। ...किन्तु, यह कतई यथार्थ नहीं है। यह सोचा जाना चाहिए कि उस सम्प्रदाय से संबंधित प्रवर्तक महापुरुष के समय में कैसी परिस्थितियाँ थी और प्रवर्तन के विशेष कारण क्या थे? उस समय देशकाल और प्रजा का मानस कैसा था? यदि ऐसे प्रश्नों पर विचार मंथन किया जाता रहे तो धर्म के नाम पर साम्प्रदायिकता या अधर्म नहीं फैल सकेगा परन्तु ऐसे सत्य विचार के लिए जैसी जागृत बुद्धि चाहिए, उस बुद्धि के बीच में तो पहले ही मताग्रह की दीवार खिंच चुकी होती है। वह बाधा रूप बनी रहती है और बुद्धि को सत्य का स्पर्श करने से रोके रखती है। मिथ्या आडम्बर, अंधी भक्ति, मिथ्या अतिशयोक्ति तथा परम्परागत कल्पना से अनुयायियों का मानस इतना रूढ़ हो जाता है और हृदय इतना आवेशपूर्ण बन जाता है कि नवीन विचार श्रेणी को पचा सके-ऐसी विवेक बुद्धि का उद्भव ही उनमें नहीं हो सकता है। वे सिर्फ ऊपर के कर्मकांडों में मग्न रह कर धर्म पालन की इति-समाप्ति मान लेते हैं। आज व्यवहार और धर्म के बीच पैदा हुए भारी अन्तर का मुख्य कारण यही जड़ता है। इस जड़ता ने ही धर्म को उदार नहीं, 'उधार' बना रखा है। इसलिए सूत्रकारों ने ऐसी जड़ता की स्थिति से बचने का उपदेश दिया है।
...धर्म तो जीवनव्यापी वस्तु है। धर्मिष्ठ मात्र धर्म स्थान को ही नहीं, विश्व के जितने क्षेत्रों या स्थानों में वह सम्पर्क रखता है, सबको पवित्र बनाता है और उनकी पवित्रता बनाये रखता है। वह सच्ची धर्म भावना को समझता और समझाता है। वह धर्म की ऐसी नकद भावना चुकाता है कि जड़, रूढ़ियां, बहम, लालच और भय के भूतों की दुनियां रचाने वालों की कलई खुल जाती है। वह साफ बता देता है कि ऐसी दुनिया धर्म की है ही नहीं। ऐसे नकद धर्म का पालन व्यक्तिगत रूप से किया जाए तभी विश्व का कल्याण हो सकता है (श्री आचारांग सूत्र नो संक्षेप-गुजराती-भाग 3 पृष्ठ 43
44)"
___ इस दृष्टि से आज व्यक्ति को सबसे पहले चरित्र चेतना और विवेक बुद्धि जगानी होगी जो चरित्र निर्माण तथा विकास से ही संभव है।
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