Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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दुर्व्यसनों की बाढ़ बहा देती है चरित्र निर्माण की फलदायी फसल को
7. परस्त्री ( पर पुरुष) गमन कामवासना प्रबल तो होती ही है, लेकिन कभी इतनी प्रचंड बन जाती है कि व्यक्ति मर्यादा की सीमा लांघ जाता है। परिणाम स्वरूप वह वेश्यागमन करता है या अपने पाप को छिपाने के लिए परस्त्री का सेवन करता है या कि स्त्री परपुरुष का सेवन करती है । इससे भोग की दुष्प्रवृत्ति बढ़ती ही है और विकृति समाज में विस्तार पाती है। मदोन्मत्त हाथी को वश में करने या सिंह से खुले हाथ लड़ने वाले भी कामदेव से संघर्ष नहीं कर पाते हैं। इसी दृष्टि से श्रावक की कामवासना मर्यादित बनाई गई है कि वह स्व स्त्री में संतोष करे। परस्त्री सेवन इस मर्यादा का उल्लंघन है और श्रावक के लिए अकरणीय है। कामवासना का नियंत्रण समाज व्यवस्था के लिए भी आवश्यक है। विवाह की परिपाटी इसी सामाजिक सुव्यवस्था का प्रतीक है और अकारण इस परिपाटी का उल्लंघन अपराध से कम नहीं है। स्त्री शब्द में परित्यक्ता, व्यभिचारिणी, वेश्या, दासी, रखैल आदि शामिल हैं। इनके साथ भोग करना परस्त्रीगमन का व्यसन है। यह अवैध पापाचार है। आज जो अपराधी व्यक्ति लड़कियों की खरीद-फरोख्त, तस्करी या धंधेबाजी करते हैं, वे भी पापाचारी हैं। मर्यादा की दृष्टि से ही स्वयं की पत्नी का नामकरण धर्मपत्नी किया गया है, अतः इस मर्यादा का उल्लंघन करने वाला इस व्यसन का दोषी | परस्त्रीगामी सदा अविश्वसनीय होता है । समाजशास्त्री इस व्यसन के ये कारण बताते हैं- क्षणिक आवेश, अज्ञान, बुरी संगत, पथ भ्रष्टता, कामुक साहित्य पठन, धनमद, अंधविश्वास, अश्लील चलचित्र, अनमेल विवाह, नशीले पदार्थों का सेवन आदि । जैन साधना पद्धति में व्यसनमुक्ति के अभाव में चरित्र का निर्माण भी नहीं किया जा सकता है - चरित्र विकास की बात दूर ही रहती है। व्यसनी व्यक्ति में सद्गुणों का प्रवेश ही संभव नहीं होता है और सद्गुणों का धरातल न मिले तो चरित्र निष्ठा का टिकाव ही नहीं होता है। दुर्व्यसनों के अन्य प्रकार तथा आज के जमाने के व्यसन :
आज के जमाने में पश्चिम की अपसंस्कृति तथा फैशनपरस्ती के नाम पर दुर्व्यसनों की नई नई बानगियाँ सामने आ रही हैं। यह कह सकते हैं कि इनकी संख्या सात या अट्ठारह ही नहीं है, बल्कि अनगिनत व्यसनों की बाढ़ सी आ गई है। प्राचीनकाल में जैनाचार्यों ने जिन सात दुर्व्यसनों का उल्लेख किया है, उनके सिवाय वैदिक ग्रंथों में व्यसनों की संख्या अट्ठारह बताई गई है। इनमें से दस व्यसन कामज (काम से उत्पन्न होने वाले) कहे गए हैं तथा शेष आठ क्रोधज (क्रोध से उत्पन्न होने वाले ) बताए गए हैं। काम व्यसन हैं- 1. मृगया (शिकार), 2. अक्ष (जुआ), 3. दिन का शयन, 4. परनिन्दा, 5. परस्त्री सेवन, 6. मद, 7. नृत्य सभा, 8. गीत सभा, 9. वाद्य की महफिल तथा 10. व्यर्थ भटकना । इसी प्रकार क्रोधज व्यसन हैं- 1. चुगली खाना, 2. दुस्साहस करना, 3. द्रोह करना, 4. ईर्ष्या, 5. असूया, 6. अर्थ दोष, 7. वाणी से दंड एवं 8. कठोर वचन ।
आधुनिकता का बाना ओढ़कर कई व्यसनों की बाढ़ में उनके नाम अनगिन हैं। मोटे तौर पर उन्हें गिनावें तो वे हैं - अश्लील चलचित्र, कामोत्तेजक साहित्य आदि, रोमांटिक और जासूसी पुस्तकें, सिगरेट, चुरुट से ऊपर मोरफिया, ब्राऊन शूगर आदि नशीली दवाएँ तथा इजेक्शन । देह और वेशभूषा को सुंदर बनाने वाले साधनों के उपयोग में महिलाओं की ही होड़ नहीं है, पुरुष भी साथ-साथ भाग रहे हैं। मुख्य रूप से युवा पीढ़ी इस देह - भूषा सौंदर्य की दौड़ में सबसे आगे है। नए व्यसनों की
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