Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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दुर्व्यसनों की बाढ़ बहा देती है चरित्र निर्माण की फलदायी फसल को
उसके सारे काम-हंसना, बोलना, गाना वगैरह पागलों की तरह होते हैं। उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। मदिरा में आठ दुर्गुण समाए होते हैं-1. मस्ती, 2. पागलपन, 3. कलह, 4. धृष्टता, 5. बुद्धि विवेक का नाश, 6. सच्चाई व योग्यता का लोप,7.खुशी का नाश और 8. नरक का मार्ग खुला। सुरापान को सभी धर्मों में त्याज्य कहा गया है। भगवान् महावीर ने कहा-मदिरा न पीओ, महात्मा बुद्ध ने कहा'मज्जंन पायब्ब', हजरत मुहम्मद ने कहा-अल्लाह ने शराब पर, शराब पीने वालों पर, पिलाने वाले
और पीने-पिलाने में मदद देने वालों पर लानत फरमाई है। गांधी जी ने शराबबंदी के कार्यक्रम को प्राथमिकता दी। सबने मदिरापान को महापाप कहा है।
4. वेश्यागमन - वेश्यागमन उस विषैले सर्प के समान होता है, जो चमकदार दिखता है मगर होता खतरनाक है। वेश्या के हावभाव भरे कटाक्ष में वही व्यक्ति फंसता है व उस मछली की तरह हो जाता है जो जरा सी मिठास में पड़कर काटे में फंस जाती है। यह वेश्यागमन मदिरापान की तरह ही घातक दुर्व्यसन है। यह मोहजाल में उलझा कर नष्ट कर डालने के फंदे जैसा है। वेश्या को उस जलती हुई अग्निशिखा की उपमा दी गई है, जिस पर कामासक्त व्यक्ति पतंगों के समान अपने जीवन के सर्वस्व को झोंक देता है और स्वयं को भस्म कर डालता है। वेश्या पतंगों को जलाती है, लेकिन खुद भी जलने से कहाँ बचती है? यह कहें कि वह पहले जलकर ही दूसरों को जला पाती है। वेश्यावृत्ति ही ऐसी पतित वृत्ति है जो बरबादी के अलावा किसी को कुछ देती ही नहीं है। यह वृत्ति मानवता का अभिशाप है, समाज के माथे पर कलंटी टीका है। वेश्या स्त्री होकर भी निर्जीव मशीन की तरह होती है, जो अपने शरीर को बेचकर धंधा करती है-अपनी रोटी कमाती है। कितनी दयनीय दशा है? सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा कही जाने वाली नारी को ऐसी दुर्दशाग्रस्त बनाने वाले नर की. कुटिलता को भी कम करके नहीं आंकना चाहिए। वेश्यावृत्ति पुरुष प्रधान समाज की गंदी मोरी है जिसे हटाए बिना समग्र वातावरण को स्वच्छ एवं स्वस्थ नहीं बनाया जा सकता है। नर और नारी रूपी समान चक्रों के बिना समाज का रथ समगति से नहीं चल सकता है। किन्तु आज इस वृत्ति का विकराल रूप यह सुना जाता है कि वेश्यावृत्ति अपने अड्डों से फैल कर घरों की चौखटों तक में घुस गई है। ऐसा कदाचार और दुराचार व्यक्ति और उसके समाज को चरित्रहीनता की किस नीचता तक ले जाएगा-कहना कठिन है। पैसे के लिए शरीर का व्यापार करना पड़े-यह अत्यंत घृणित स्थिति है।
5.शिकार - शिकार किसी भी प्रकार से मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि मानव की क्रूरता और जंगलीपन की निशानी है। अपनी शक्ति से जानवरों का शिकार करके जो अपनी वीरता दिखाने की चेष्टा करता है, वह उसकी वीरता नहीं, केवल कायरता है। मूक पशुओं को मारना और उनके प्राणों के साथ खिलवाड़ करना यह शिकारी की मात्र हृदयहीनता है। जैन शास्त्रों में शिकार को 'पापर्थि' कहा है, जिसका अर्थ है कि पाप की ऋद्धि कमाने का कु कार्य। शिकार का व्यसन अनेकों के जीवन को कष्टमय बनाता है। वह एक पशु का ही वध नहीं करता, बल्कि स्वयं की वीरता के अहंकार में प्राणियों का लगातार हनन करता रहता है तथा शेर, चीते आदि के मृत मस्तकों को दीवारों पर सजा कर अपनी वीरता का झूठा प्रदर्शन करता है। आचार्य वसुनन्दी का अभिमत है कि मधु, मद्य, मांस का दीर्घकाल तक सेवन करने वाला उतने महापाप का संचय नहीं करता, जितने महापापों का बंध
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