Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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मानवीय मूल्यों का प्रेरक धर्म ही उज्जवल चरित्र
बचाव कैसे हो सकता है?' तब महावीर ने कहा - ' पहले यह देख लो कि तुम संसार के समस्त प्राणियों के साथ एकरस हो चुके हो या नहीं? तुम्हारी वृत्तियां उनके साथ एकरूप हो चुकी हैं या नहीं तुम्हारी आंखों में उन सबके प्रति प्रेम बस रहा है या नहीं? यदि तुम उनके प्रति एकरूपता लेकर चल रहे हो, संसार के प्राणी मात्र को समभाव दृष्टि से, विवेक और विचार की दृष्टि से देख रहे हो, उनके सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझ रहे हो तो तुम्हें पाप कर्म कभी भी नहीं बांध पायेंगे' (सव्व भूयप्पभूयस्स, सम्मं भुयाइं पासओ, पिहिआसवस्स दंतस्स, पावकम्मं न बंधइ । दशवैकालिक सूत्र, अध्ययन 4 ) ।
प्राचीन दार्शनिक अरस्तु ने ठीक ही कहा कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, जिसका अर्थ है कि व्यक्ति और समाज के बीच अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। व्यक्ति पाप करेगा तो समाज में और उनसे बचने का उपाय करेगा तो वह भी समाज में ही सम्भव होगा। समाज और व्यक्ति के बीच शुभ, सुखद एवं सद्भावी सम्बन्ध बनाने का एक ही उपयुक्त उपाय है कि मानव चरित्र का निर्माण किया जाए, उसका सम्यक् विकास हो तथा उससे उपजी निष्ठा के बल पर समाज का यानी कि समूहगत घटकों का सुधार किया जाए जिससे सामाजिक चरित्र अर्थात् मानवीय मूल्यों का सृजन हो । समाज और व्यक्ति के सम्बन्ध एक-दूसरे के पूरक होते हैं और एक दूसरे का परिष्कार एवं परिवर्धन करने वाले बनते हैं। अतः समाज और व्यक्ति दोनों का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि दोनों ही परस्पर सहयोग, सहानुभूति एवं सम्यक् सन्तुलन बनाए रखते हुए चारित्रिक पराक्रम को प्रखर बनाने के सदुद्देश्य में तत्पर रहे।
अन्त में आपसे एक प्रश्न पूछना चाहूँगा। उस प्रश्न पर आप विचार करें और अपनी स्थिति को समझें । प्रश्न यह है कि आप महापुरुषों के कथन पढ़ते हैं, प्रवचन सुनते हैं या स्वाध्याय आदि करते हैं तो उन्हें क्या बड़ी बहू की तरह एक कान से सुन दूसरे कान से बाहर निकाल फेंकते हैं या दूसरी बहू की तरह चबा डालते हैं या तीसरी बहू की तरह पेटी में बंद कर देते हैं अथवा छोटी बहू की तरह कई गुना बढ़ाने की चेष्टा करते हैं?
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