Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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मानवीय मूल्यों का प्रेरक धर्म ही उज्जवल चरित्र
रह तो क्या पग-पग पर व्यक्ति के सामने ऐसी परिस्थितियाँ नहीं आती कि यदि वह एक चारित्रिक गुण का सत्प्रयोग करें अथवा एक-एक कर्तव्य का सम्यक् प्रकार से पालन करे तो वह अपने व समूह के जीवन को साथ-साथ हितावह एवं सुखद बना सकता है। इसके विपरीत अशुभ वृत्तियों प्रथा प्रवृत्तियों में फंस कर वह समग्र जीवन को कलंकित भी कर सकता है। पूरी कल्पना से निष्कर्ष यह निकलता है कि समूह में व्यक्ति के पारस्परिक साथ व सम्पर्क से ही धर्म सिद्धान्तों का आचरण संभव है तथा उनका लाभ भी सबके लिये वरदान बनता है। इसका कारण समाज व व्यक्ति की अन्योन्याश्रितता है। यही कारण है कि चरित्र निर्माण और धर्माचरण का मूल महत्त्व यहां लोक कल्याण में ही स्थापित है।
श्रीमद् जवाहराचार्य ने ग्रन्थ 'धर्म व्याख्या' में विभिन्न धर्मों का विवेचन किया है, जिनमें ग्राम धर्म, नगर धर्म, राष्ट्र धर्म आदि का उल्लेख है। यहां धर्म का आशय कर्त्तव्य से है और गांव में रहने वालों के अपने गांव के प्रति अर्थात् गांव को स्वस्थ रीति से प्रगतिशील बनाए रखने हेतु क्या कर्तव्य और दायित्व है, उनका उल्लेख हैं। इसी प्रकार नगर तथा राष्ट्र के नागरिकों के नगर की उन्नति एवं राष्ट्र के नवनिर्माण एवं विकास के प्रति क्या कर्त्तव्य है, वे नगर धर्म और राष्ट्र धर्म के रूप में परिभाषित किए गए हैं। यह स्पष्ट है कि सम्बन्धित कर्तव्यों का पालन सम्बन्धित नागरिक को करना होता है, किन्तु इस पालन का सुप्रभाव मुख्य रूप से समूह पर होता है और उसका लाभ सुरक्षा, विकास आदि की दृष्टि से सभी नागरिकों को मिलता है। इस प्रकार कहीं भी शंका का स्थान नहीं है कि धर्म का लोक कल्याणक स्वरूप बहुत विस्तृत, बहुत प्रभावकारी तथा बहुत ही लाभदायक है। वस्तुतः धर्म की उपयोगिता एवं पालनीयता समूहगत घटकों में ही अस्तित्व और आभास में आती है। धर्म का परिणाम चरित्र-निर्माण और उसका परिणाम मानव मूल्यों का सृजन :
" वांछित रूप से प्राप्त परिणाम के आधार पर ही कार्य सिद्धि का स्पष्ट अनुमान लगाया जा सकता है। एक बालक किसी परीक्षा में बैठा और जब उसका परिणाम निकलता है तभी ज्ञात होता है कि वह सफल हुआ अथवा विफल और सफल हआ तो कितने अंकों के साथ। यही बात धर्माचरण पर भी लाग होती है। धर्म के आन्तरिक और बाह्य दोनों पक्ष होते हैं और इन दोनों क्षेत्रों में धर्म कर्तव्यों जा आचरण करने वाले ने कितनी और कैसी सफलता प्राप्त की. इसका मापक यंत्र यही है कि
चरित्र का निर्माण गण ग्राहकता की दष्टि से एवं व्यावहारिक रूप से कितना शभ बना है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि चरित्र-निर्माण की कसौटी धर्माचरण है यानी यह पता चलता है कि धर्माचरण कितना खरा है और कितना खोटा है। इसी प्रकार मानव मूल्यों के सृजन की कसौटी होगी कि चरित्र का निर्माण कितना निष्पाप एवं शुभदायक हुआ है। ये तीनों तत्त्व परस्पर सम्बन्धित है और जीवन को श्रेष्ठ बनाने की कला में तीनों तत्त्वों का सामंजस्य अनिवार्य है। इसी विचार से कहा गया है कि धर्म के आचरण का परिणाम चरित्र-निर्माण है तो चरित्र-निर्माण की उत्कृष्टता का निश्चित परिणाम इस रूप में सामने आना चाहिए कि सब ओर मानव मूल्यों की सक्रिय स्थापना एवं स्वीकृति हो चुकी है तथा उनकी प्रतिष्ठा मानव धर्म को एक नया लोककल्याणकारी स्वरूप प्रदान कर रही है।
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