Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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मानवीय मूल्यों का प्रेरक धर्म ही उज्जवल चरित्र
हो चुकी है और जो विचार समन्वय के लिए विश्व विख्यात सिद्धान्त 'थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी' के रूप में मान्यता प्राप्त कर चुका है।
वैयक्तिक एवं सामाजिक धर्माचरण, चरित्र-निर्माण अथवा साधना के सन्तुलन के सम्बन्ध में स्व. उपाध्याय अमर मुनि के विचार उल्लेखनीय है। उनका कथन है-"जैन धर्म की मूल परम्परा में आप देखेंगे कि वहां साधना के क्षेत्र में व्यक्ति स्वतंत्र होकर अकेला भी चलता है और समूह या संघ के साथ भी। एक ओर जिनकल्पी मुनि संघ से निरपेक्ष होकर व्यक्तिगत साधना के पथ पर बढ़ते हैं, दूसरी ओर विराट समूह हजारों साधु-साध्वियों का संघ सामूहिक जीवन के साथ साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ता है। जहां तक मैं समझता हूं, जैन धर्म और जैन परम्परा ने व्यक्तिगत धर्म साधना की अपेक्षा सामूहिक साधना को अधिक महत्त्व दिया है। सामूहिक चेतना और समूह भाव उसके नियमों के साथ अधिक जुड़ा हुआ है। अहिंसा और सत्य की वैयक्तिक साधना भी संघीय रूप में सामूहिक साधना की भूमि पर विकसित हुई है। अपरिग्रह, दया, करुणा, मैत्री और सद्भाव की साधना भी संघीय धरातल पर ही पल्लवित-पुष्पित हुई है। जैन परम्परा का साधक अकेला नहीं चला है, बल्कि समूह के रूप में साधना का विकास करता चला है। व्यक्तिगत हितों से भी सर्वोपरि संघ के हितों का महत्त्व मान कर वह चला है। जिनकल्पी जैसा साधक कुछ दूर अकेला चल कर भी अन्ततोगत्वा संघीय जीवन में ही अन्तिम समाधान कर पाया है। ...जीवन में जब संघीय भाव का विकास होता है तो निजी स्वार्थों और व्यक्तिगत हितों का बलिदान करना पड़ता है, मन के केन्द्रों को समाप्त करना होता है और एकता व संघ की पृष्ठभूमि को त्याग पर खड़ी करनी होती है। अपने हित, अपने स्वार्थ और अपने सुख से ऊपर संघ के हित को, संघ के स्वार्थ और सामूहिक हित को सदा प्रधानता दी जाती है। संघीय जीवन में साधक अकेला नहीं रह सकता, सबके साथ चलता है। एक दूसरे के हितों को समझ कर वह अपने व्यवहार पर संयम रखता हुआ चलता है। परस्पर एक दूसरे के कार्य में सहयोगी बनना, एक दूसरे के दुःखों और पीड़ाओं में यथोचित साहस और धैर्य बंधाना, उसमें हिस्सा बंटाना-यही संघीय जीवन की प्रथम भूमिका होती है। जीवन में जब अन्तर्द्वन्द खड़े हो जावे और व्यक्ति अकेला उनका समाधान न कर सके, तो उस स्थिति में दूसरा साथी उसके अन्तर्द्वन्द्वों को सुलझाने में स्नेही सहयोगी बने, अंधेरे में प्रकाश दिखावे और पराभव के क्षणों में विजय मार्ग की ओर उसे बढ़ाता ले चले। सामूहिक साधना की यह एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है कि वहां किसी भी क्षण व्यक्ति अपने को एकाकी या असहाय अनुभव नहीं करता है, एक के लिए अनेक सहयोगी वहां उपस्थित रहते हैं। एक के सुख व हित के लिए अनेक अपने सुख व हित का उत्सर्ग करने को प्रस्तुत रहते हैं। ...जैसा कि मैंने बताया, बहुत पुराने युग में, व्यक्ति अपने को तथा दूसरों को अलग-अलग एक इकाई के रूप में सोचता रहा था, पर जब समूह और समाज का महत्त्व उसने समझा, संघ के रूप में ही उसके जीवन की अनेक समस्याएं सही रूप में सुलझती हुई लगी तो सामाजिकता में, संघीय भावना में उसकी निष्ठा बनती गई और जीवन में संघ और समाज का महत्त्व बढ़ता गया। साधना के क्षेत्र में भी साधक व्यक्तिगत साधना से निकल कर सामूहिक साधना की ओर आता गया। ...जीवन की उन्नति और समृद्धि के लिए समाज और संघ का आरम्भ से ही अपना विशिष्ट महत्त्व है, इसलिए व्यक्ति से अधिक समाज तथा संघ को महत्त्व दिया गया है (चिन्तन की
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