Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
धर्म की एक परिभाषा यह भी है कि धारयति इति धर्मः' अर्थात् जो धारण करता है वह धर्म है। इसका अभिप्राय यह है कि जब मनुष्य व्यापकता के आधार पर धारण करता है, तभी धर्म की सार्थकता व्यक्त होती है। मनुष्य कर्म करता है, किन्तु उसकी परख धर्म की कसौटी पर की जाती है। कर्म की श्रेष्ठता उसके शुभत्व से आंकी जाती है जो धर्म और चरित्र दोनों के लिए वांछनीय है। कर्म कितना ही प्रशंसनीय क्यों न हो, किन्तु वह कामनाओं से मुक्त होना चाहिए। कामना में अपना स्वार्थ छिपा रहता है और स्वार्थ के रहते कर्म में शुभत्व की पूर्णता नहीं बनती। निःस्वार्थ कर्म ही सदा शुभ होता है और जो शुभ है वही धर्म है, वही चरित्र है। पाश्चात्य दार्शनिक कांट के अनुसार कर्म तभी शुभ है जब कर्तव्य बुद्धि से किया गया हो। किसी कर्म का सम्पादन किसी भावना या आवेग की परितृप्ति के लिए नहीं, बल्कि कर्त्तव्य बुद्धि के आदेश से होना चाहिए। उसके अनुसार कर्म के शुभाशुभत्व को परखने के लिए पांच सूत्र हैं :-1. सार्वभौम विधान सूत्र-सर्वत्र प्रयुक्त नियमों का पालन, 2. प्रकृति विधान सूत्र-प्रकृति के सार्वभौम नियमों का पालन, 3. स्वयं साध्य सूत्र-अपने व्यक्तित्व में प्रत्येक पर पुरुष के व्यक्तित्व में निहित मानवता का एक ही समय में साध्य के रूप में प्रयोग, 4. स्वतंत्रता सूत्र-अपने को सार्वभौम विधान बनाने वाली समझ के नियमों का पालन तथा 5. साध्यों का राज्य सूत्र-एक सार्वभौम राज्य के विधायक सदस्य के नाते साध्यों के नियमों का पालन (नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, पृष्ठ 240-241)। इन सभी नीति सूत्रों में किसी न किसी रूप में समत्व, अनासक्ति, आत्मवत् दृष्टि आदि के भाव दिखाई देते हैं। कांट इन्द्रिय-निग्रह का प्रबल पक्षपाती है, जो आचारांग के कथन से मेल खाता है कि साधक को भाव स्रोत का परिज्ञान करके दमनेन्द्रिय बनकर संयम में विचरण करना चाहिए (1-3-2)।
निष्कर्ष यह है कि धर्म का आचरण विभिन्न कर्तव्यों के रूप में शुद्ध एवं शुभ भाव से किया जाना चाहिए, तभी वह चरित्र-निर्माण एवं विकास के रूप में प्रतिफलित होता है तथा इसी फलश्रुति के अनुसार उन श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों की स्थापना एवं प्रतिष्ठा की जा सकती है जो सबको आत्मौपम्य दृष्टि से देखते हैं। वैयक्तिक एवं सामाजिक चरित्र के सन्तुलन की डोर धर्म के पास :
मानव जीवन एक होता है, परन्तु उसके पक्ष अनेक होते हैं। उसका अपना व्यक्तित्व होता है तो परिवार के दायरे में विभिन्न सम्बन्धों का निर्वाह करता है तथा उन्हें स्नेह एवं सहयोग के सूत्रों से बांधे रखता है। जाति या वर्ग का सदस्य होने के नाते उसके शुभ कार्यों का भी वह भागीदार बनता है तो राष्ट्र एवं विश्व की नागरिकता के नियमों एवं कर्तव्यों का भी वह पालन करता है। कहा जा सकता है कि उसका व्यक्तित्व केवल वैयक्तिक ही नहीं रहता, अपितु बहुआयामी स्वरूप ले लेता है और इसी से उपजता है उसका वैयक्तिक एवं सामाजिक कर्तव्यों का पुंज अर्थात् उसका धर्म, उसका चरित्र, उसकी नैतिकता, उसका सदाचार और उसका चरम उत्थान । इसी पृष्ठभूमि में उपजती है उसके वैयक्तिक तथा सामाजिक चरित्र के स्वस्थ सन्तुलन की समस्या, जिसका समाधान का सूत्र धर्म के पास है जो उसके आचरण की सफलता के साथ जुड़ा हुआ है। इस सम्बन्ध में धर्माचरण की प्रमुख दृष्टि होनी चाहिए, अनेकान्तवादी दृष्टि जिसकी कुछ चर्चा पहले
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