Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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मानवीय मूल्यों का प्रेरक धर्म ही उज्जवल चरित्र
रूप में वे जो कर्त्तव्यों का पुंज सामान्य जन को दे रहे हैं, उनके द्वारा समाज को क्या रूप मिलना चाहिए? इस बिन्दु पर यहां कुछ चर्चा करें। धर्म सिद्धान्तों की सूक्ष्म समीक्षा की जाए तो यह लक्ष्य स्पष्ट होता है कि संसार, देश, समाज, समुदाय, ग्राम, नगर, परिवार आदि सभी घटकों की व्यवस्था दंड पर आधारित न रह कर चरित्र बल पर टिके और वह स्वतः चालित व्यवस्था के रूप में स्थिर हो
वे । इस दृष्टिकोण से व्यवस्था सम्बन्धी अनेक कर्त्तव्यों को पालनीय धर्मसूत्रों के रूप में प्रस्तुत किया जाए ताकि अल्पज्ञानी या अज्ञानी भी श्रद्धावश उनका पालन करें। सच्ची श्रद्धा में दंड का भय नहीं होता, बल्कि स्वेच्छा का उदय होता है। ऐसे कुछ धर्मसूत्रों की यहां समीक्षा करें जिनका अन्तर्निहित उद्देश्य चरित्र को सुदृढ़ बनाना है, नैतिकता की रक्षा करना है अथवा स्वास्थ्य को सुचारू बनाए रखना है। लीजिए सबसे बड़े धर्म सूत्र - अहिंसा के पालन की बात करें। अहिंसा के निषेध पक्ष के अनुसार किसी भी जीव के किसी भी प्राण को न आघात पहुंचाना और न उसका वध करना होता है। उसके विधि पक्ष के अनुसार सबके जीवन की रक्षा करना कर्त्तव्य है तो लाभ किसको पहुंचेगा ? उन प्राणियों या व्यक्तियों को जिनके जीवन पर हिंसा का खतरा मंडराता है तो धर्म सूत्र के बारे में पहली बात यह कि पालनकर्त्ता के अलावा उससे अन्यों को व्यापक संरक्षण मिलता है। दूसरे, राज्य व्यवस्था की दृष्टि से देखें तो कानून तथा सुरक्षा (लॉ एण्ड ऑर्डर) की समस्या का सहज समाधान निकल आता है। तीसरे, यदि अहिंसक जीवनशैली का व्यापक एवं स्वैच्छिक विस्तार बढ़ता जाता है तो धीरे-धीरे राज्य की दंड एवं सुरक्षा व्यवस्था का बोझ कम होता जाएगा और कभी एक दिन 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का सपना भी सच हो सकता है अथवा यों कहें कि आज पूरी शक्ति के अभाव में प्रभाव डालने में अक्षम संयुक्त राष्ट्र संघ एक सशक्त विश्व सरकार रूप 'बदल जाए। यह तो केवल एक धर्म सूत्र की बात हुई। कोई भी अन्य धर्म सूत्र - सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह, यम, नियम, चरित्र, नैतिकता और इनके जो पालनीय विधि विधान हैं सबको विचार में ले- तब भी यही ध्वनि निकलती है कि उनके पालन का अधिकतम लाभ अन्य को अथवा समूह को मिलता है और वह भी इस रूप में कि वह समूची व्यवस्था को प्रभावित करता है। कई ऐसे धर्म सूत्र हैं जिनका बाहरी रूप तो धर्म क्रिया का है किन्तु उनके पालन का अभिप्राय या तो स्वास्थ्य रक्षा है अथवा शुद्धि को प्राथमिकता देने की बात है। रात्रि भोजन त्याग, उपवास आदि ऐसी कई धार्मिक क्रियाएं हैं। अनेकानेक धर्मसूत्रों के आन्तरिक अर्थ को संयुक्त करके देखें तो लगेगा कि धर्म प्रवर्तकों का लक्ष्य कितना दीर्घदर्शी था । उनका प्रमुख लक्ष्य रहा होगा कि बिना किसी बाहरी पुलिस, सजा या अदालती इन्तजाम के सर्वत्र सुरक्षा और व्यवस्था कायम हो जाए, चरित्र निर्माण व नैतिकता से आपसी व्यवहार चले और धर्म सारे सम्बन्धों में सरसता के रंग भरे। इस नजरिये से श्रद्धा का बड़ा मोल किया गया। नादानों के लिए स्वर्ग का प्रलोभन और नरक का भय भी दिखाया गया ताकि वह धर्मसूत्रों की लीक से हटे नहीं ।
धर्म प्रवर्तकों के अन्तर्निहित लक्ष्य का यदि धर्म सूत्रों की विशद आन्तरिक व्याख्या के साथ व्यापक विश्लेषण किया जाए तो यह मानना होगा कि चरित्र निर्माण में मूलतः धर्म की ही सन्तुलनात्मक भूमिका मुख्य है । चरित्र निर्माण से चरित्र विकास और उससे अगले चरण चरित्र का
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