Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
View full book text
________________
संस्कृति, सभ्यता साहित्य और कला बुनियादी तत्व
संस्कृति एवं सभ्यता को तुलनात्मक दृष्टि से देखें । मानो कि संस्कृति एक प्रवहमान सरिता है तो उस सरिता का प्राण तत्त्व होगा उसका सतत प्रवाह और यही सतत प्रवाह संस्कृति का भी प्राण तत्त्व होता है। संस्कृति का अर्थ निरन्तर विकास की ओर बढ़ना । वस्तुतः यही प्राण तत्त्व है चरित्र निर्माण का भी कि जिसकी प्रक्रिया निरन्तरता से सदा संयुक्त रहती है। चरित्र और संस्कृति में साम्यता है कि दोनों के विचारों, आदर्शों, भावनाओं एवं संस्कारों का प्रवाह जब संगठित बनता है तो वह सुस्थिर भी हो जाता है। संस्कृति को दो भागों में बांट दें-भौतिक एवं आध्यात्मिक-तो उसका भौतिक भाग सभ्यता कहलाएगा जिसमें भवन, वसन, वाहन और यंत्र आदि समस्त भौतिक सामग्रियों का समावेश हो जाता है जो सामाजिक श्रम से निर्मित होती है। कला का समावेश भी इसी भाग में होता है। संस्कृति के आध्यात्मिक भाग में आचार, विचार तथा विज्ञान का समावेश होता है। इसी प्रकार संस्कार की दृष्टि से भी संस्कृति के रूप की पहचान की जा सकती है, क्योंकि संस्कार दो प्रकार के होते हैं-1. वैयक्तिक संस्कार, जिसमें मनुष्य अपनी गुणवत्ता, प्रतिभा तथा शिष्टता से ख्याति प्राप्त करता है तथा 2. सामूहिक, जो समाज विरोधी दूषित आचार का प्रतिकार करता है। संस्कार के समान ही चरित्र का स्वरूप भी होता है। जहां वैयक्तिक एवं सामाजिक प्रयोग एक आदर्श समाज की रचना कर सकते हैं, क्योंकि चरित्र बल एवं सांस्कृतिक प्रभाव के कारण समान आचार, समान विचार, समान विश्वास, समान भाषा और समान पथ एकता की ओर ले जाते हैं।
जीवन जीने की कला अथवा पद्धति को संस्कृति कहते हैं या चरित्र निर्माण इस कला और पद्धति में शुभता, शुचिता और सुचारूता लाता है। इस दृष्टि से संस्कृति चरित्र विकास के साथ जुड़ कर मानव के भूत, वर्तमान और भविष्य के समग्र जीवन में सर्वांगीण उन्नति के सुरंगें रंग भरती है तथा नई जीवट संजोती है। यों संस्कृति जीवन का प्राण तत्त्व बनती है-ठोस सत्य का रूप लेकर उभरती है। मानव जीवन निरन्तर क्रियाशील रहता है-कभी भी गतिहीन नहीं होता। तदनुसार उसमें निरन्तर विकास और परिवर्तन होता रहता है। यही विकास और परिवर्तन संस्कृति के साथ भी जुड़ता जाता है। विकास और परिवर्तन जितना अधिक शुभता एवं सर्वहितैषिता के साथ जुड़ा हुआ रहता है उतना ही वह दीर्घजीवी होता है। यह भारतीय संस्कृति इसी कारण दीर्घजीवी बनी है क्योंकि यह 'सत्यं शिवं सुन्दरं' से जुड़ी होकर मनुष्य के मन, प्राण और देह को प्रेरित करती रही है। इस संस्कृति के सृजनात्मक रूपों से ही धर्म, दर्शन, साहित्य एवं कला को भी सम्मिलित किया जा सकता है। जहां संस्कृति एवं सभ्यता का संयोग होगा, वहां धर्म होगा, दर्शन होगा और साहित्य एवं कला का भी स्पष्ट प्रभाव होगा। संस्कृति एवं सभ्यता मानवीय जीवन के आभ्यन्तर एवं बाह्य की श्रेष्ठतम उपलब्धि है। इसमें जब चरित्रनिष्ठा संयुक्त हो जाती है तो मानव के मन, वचन एवं व्यवहार की सीमाएं भी विस्तृत बन जाती है, जहां से उदारता, सहिष्णुता एवं सहकारिता के स्रोत फूट पड़ते हैं। यदि संस्कृति है तो समझिए कि उस समूह या घटक की राजनीति, अर्थनीति, समाज नीति भी शुभता के रंग से रंग जाएगी। जो संस्कृति मूल में है और साध्य रूप भी है तो बीच के सभी साधन भी व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं सम्पूर्ण विश्व की सुख शान्ति का संवर्धन ही करेंगे। संस्कृति के प्राणतत्त्व होने का यही तो रहस्य है।
251