Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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संसार व समाज के कुशल प्रबंधन का एक ही आधार चरित्र
यह किया जाना चाहिए कि समस्या जटिल बने उससे पहले ही भावी दीर्घदृष्टि बनाकर ऐसा अग्रिम प्रबंधन किया जाए कि समस्या का न केवल स्थायी समाधान ही निकले अपितु उससे लम्बे समय तक स्वावलम्बन की रक्षा भी हो जाए। स्वावलम्बी पराश्रित नहीं रहता किन्तु स्वावलम्बन टिकता तभी है जब जनता की भी समस्या के समाधान में भागीदारी हो और जो संचालन का दायित्व शनैःशनैः ग्रहण कर ले। ___ यह तो एक उदाहरण है किन्तु आज भी यदि जनकल्याण और विकास के कार्यों को पूरे करने के लिए उचित व्यवस्था के साथ प्रबंधन तकनीक का सहारा लिया जाए तो स्वावलम्बन की दिशा में प्रगति की जा सकती है। आज के विकारपूर्ण चरित्र की दशा में जिम्मेदारी जब जनता पर डाली जाए और उसे जागृत किया जाए कि उस कार्य का सारा लाभ उसे ही मिलने वाला है तो प्रबंधन तकनीक की सफलता के साथ आम लोगों में राष्ट्रीय चरित्र का विकास भी हो सकेगा। सभी जानते हैं कि करोड़ों-अरबों रुपयों का व्यय हो जाता है लेकिन आम लोगों को उस विकास का तनिक भी लाभ नहीं मिलता। सारा जनधन भ्रष्टाचारी नेता, नौकरशाह और दलाल हजम कर जाते हैं। यह अनुमान की बात नहीं, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के एक भाषण में भी स्पष्ट हुई थी कि एक रुपए में 15 पैसों का ही विकास पर व्यय होता है, 85 पैसे भ्रष्टाचारी खा जाते हैं। स्वावलम्बन को प्रोत्साहन देने वाला प्रबंधन निश्चय ही भ्रष्टाचार को भी समाप्त कर देगा।
सही परिप्रेक्ष्य में देखें तो प्रबंधन आज की सबसे बड़ी समस्या है तो प्रबंधन ही समाधान भी। प्रबंधन को ही उद्देश्य भी बनाया जाए तो दीर्घकालिक स्वावलम्बी व्यवस्था भी सभी क्षेत्रों में स्थापित की जा सकती है। लौकिक क्षेत्र के उपरान्त धार्मिक क्षेत्र में भी उपयुक्त प्रबंधन की आवश्यकता महसूस की जा सकती है। भिन्न-भिन्न साम्प्रदायिक झंडों के तले वास्तविक धर्म का विकास असंभव नहीं तो दूभर अवश्य होता है। एक ही सिद्धान्त को कोई किस रूप में कहता है तो दूसरा किसी दूसरी तर्ज पर कि अनुयायी भ्रमित हो जाता है। राजनीति में वोट की तरह धार्मिक क्षेत्र में भी साम्प्रदायिक अधिक से अधिक संख्या में बढ़ाने की होड़ लगी रहती है-धार्मिकों की संख्या वृद्धि से कम ही प्रयोजन होता है। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि धार्मिक क्षेत्र में भी चरित्र विकास की और मानवता के कल्याण हेतु कुशल प्रबंधन की नितान्त आवश्यकता है। प्रबंधन की कुशलता हेतु व्यावसायिकता पर्याप्त या भावनात्मकता भी जरूरी?
प्रबंधन की कुशलता हेतु पहले वर्तमान विचार धारा का विश्लेषण करें और सोचें कि क्या वह कुशलता की कसौटी पर खरी उतरती है? प्रबंधन या मेनेजमेंट को आज एक तकनीक का नाम दिया गया है और मान्यता है कि कोई भी तकनीक एकदम व्यावसायिक यानी कि प्रोफेशनल होनी चाहिए। इसका अर्थ होता है कि इसमें दया-करुणा यानी कि भावना की कोई गुंजाइश नहीं तथा किन्हीं समुचित कारणों को लेकिन किसी के पक्ष या विपक्ष में भी सोचने की जरूरत नहीं। किसी भी प्रकार के प्रबंधन में सिर्फ व्यावसायिकता का थर्मामीटर लगा रहना चाहिए और व्यवसाय का मतलब होता है मात्र हानि-लाभ का विचार । वर्तमान अर्थशास्त्रियों का मानना है कि किसी भी प्रबंधन की कुशलता हेतु व्यावसायिकता का विचार ही पर्याप्त हैं। यह विचारणीय बिन्दु है।
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