Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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चरित्र निर्माण की प्रक्रिया में फूटते हैं
आचार के कैसे-कैसे आकार?
सत्, चित्त एवं आनन्द हेतु चिन्तन हो ऊर्ध्वगामी
राजकुमार अरणिक की आयु कम थी, लेकिन एक "प्रवचन सुनने के उपरान्त ही उनकी भावनाओं का आवेग ऐसा बहा कि उन्होंने परिवार, सत्ता, सम्पत्ति सब कुछ त्याग कर साधु बन जाने का निश्चय कर लिया। निश्चय भी ऐसा कि राजा व रानी द्वारा भांति-भांति से समझाए जाने के बाद भी जो नहीं बदला। उल्टा राजकुमार ने अपने निश्चय की पुष्टि में ऐसा तर्क दिया कि मातापिता को हार माननी पड़ी। राजकुमार ने दलील दी कि किसी घर में आज आग लगी हो और उसे पांच दिन ठहर कर बुझाने की बात कही जाए तो क्या वह उचित होगी? माता-पिता का अपने पुत्र के प्रति मोह इतना अधिक था कि उन्होंने भी पुत्र के साथ सब कुछ त्याग कर दीक्षित हो जाना समुचित समझा। दीक्षा के बाद रानी तो साध्वियों के संघ में अलग विचरण करने लगी किन्तु साधु अवस्था में भी राजा ने राजकुमार का साथ नहीं छोड़ा। भिक्षा लाने से लेकर सभी साधु चर्या के पुत्र के कार्य भी पिता ही करते और पुत्र की सुख-सुविधा को पूरा संरक्षण देते। यों मुनि अरणिक की किशोरकालीन कोमलता यथावत् बनी रही।
किन्तु एक दिन काल ने पिता का संरक्षण छिन लिया
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