Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
3. कलत्र : अपनी पत्नी या प्रेमिका के प्रति व्यक्ति का मोह कई सीमाओं का उल्लंघन भी कर देता है। 4. पुत्र : सन्तान मोह की मिसाल भी अनोखी होती है। 5. वित्त : धन कमाने और उसके प्रति आसक्ति रखने में मनुष्य पूरी जिन्दगी बरबाद कर देता है और __पश्चात्ताप तक नहीं करता। 6. पद : वह पद को कर्तव्य निर्वाह की बात कम और अपने अहंकार को आजमाने का क्षेत्र ज्यादा
मानता है। 7. प्रतिष्ठा : लोगों के बीच में फैलने वाली अपने वर्चस्व व यश को बहुत महत्त्व दिया जाता है और तब सच्चा-झूठा कोई प्रश्न उसके लिये प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाता है।
इस प्रकार मनुष्य जीवन की ये सात गांठ हैं जो उसे बांधे ही नहीं बल्कि जकड़े रहती है। इन गांठों को कैसे खोलें यानी कि आसक्ति आदि के बंधनों से कैसे मुक्ति पावें? यह शुद्ध रूप से भावनात्मक समस्या है और भावना के स्तर पर ही इसका समाधान है। विराग, अनासक्ति या डिटेचमेंट का क्रम शुरू होते ही यह भावना जड़ पकड़ ले कि मैं यह सब (बंधन की सातों गांठे) नही हूँ (आई एम दिस नोट)। इसके साथ जड़ चेतन ग्रंथि पड़ जायेगी-फिर 'यह' सब (दिस) से मानसिक, भौतिक एवं शारीरिक रूप से विलग (डिटेच) हो जाओ-नाता तोड़ लो और मात्र दृष्टा (ऑब्जर्वर) बन जाओ।
गहराई से देखें तो ऐसे विराग की झलक आपको भारत की सांस्कृतिक परम्परा में मिलती है। किसी साधु से उसकी जाति पूछों तो वह यही कहेगा कि यह देह पहले अमुक जाति की कहलाती थी। कवि ने भी चेताया है कि 'जाति न पूछिये साधु से।' किसी को पूछे कि आपके कितने बच्चे हैं, वह जवाब देगा कि बच्चे मेरे नहीं भगवान् के हैं। अभिप्राय यह है कि सम्पूर्ण बंधन मुक्ति के लिये मैं (आई) और मेरे (माई) को छोड़ें-ममत्व त्याग दें तथा स्वयं (सेल्फ) को जाने-पहचाने। यह निजत्व भी दो प्रकार का होता है-1. वैयक्तिक (इंडिवीज्युअल) और 2. वैश्विक (यूनीवर्सल) तब स्वयं को एकाग्रता (मेडीटेशन) में नियोजित कर दें तब स्व-स्वभाव की प्राप्ति के साथ ऐसा हल्कापन महसूस होगा जैसे कि ऊपर उठ रहे हो। यही अन्तिम स्तर होता है कि मंजिल तक पहुंचने का, मुक्ति का, खुदी से खुदा एवं आत्मा से परमात्मा का स्थान पाने का। तो नैतिक आचरण, चरित्र निर्माण या आचार शुद्धि की वह स्टेज है, जहां से सबसे ऊंची उड़ान भरी जा सकती है। मानव जीवन का व्यावहारिक पहलू इथिक्स है तो उसका दार्शनिक छोर है मेटाफिजिक्स और इनके नार्स को जो बनाए रखता है, वह अपने जीवन में 'नॉर्मल' बना रहता है-सुख तथा दुःख में समत्व योगी की तरह हो जाता है। यही समता उसे साध्य तक पहुंचाती है। सदाचार और समत्व जीवन का वह प्रकाश है जो आत्मा को सम्पूर्ण प्रकाशमय बनाता है और बनाए रखता है। नैतिक जीवन सरल सुखमय होता है किन्तु उसे साधना सच्चा पुरुषार्थ है:
नीति अर्थात् नैतिकता एवं धर्म को अपनाये बिना व्यक्तित्व का निर्माण संभव नहीं है। सच तो यह है कि धर्म का आरंभ ही नैतिकता के साथ होना चाहिए। वस्तुतः धर्म की नींव में ही नीति होगी तभी धर्म आगे चलेगा। आजकल धर्म की लम्बी-चौड़ी बातें तो की जाती हैं, पर जीवन के हर क्षेत्र
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